Sunday, August 6, 2017

फिल्मसमीक्षा- हिंदी मीडियमः बच्चों का एडमिशन बच्चों का खेल नहीं


फिल्म हिंदी मीडियम कहानी है ऐसे मां-बाप(राज बत्रा और मीता) की जो अपनी इकलौती बेटी को राजधानी  के टॉप स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए हर जतन करते हैं।  पहले अमीरी के दम पर दाखिले की जुगत लगाते हैं जैसे पुश्तैनी घर छोड़कर महंगी कालोनी को आशियाना बनाते हैं। कंसलटेंट की मदद से खुद को अभिभावक के इंटरव्यू के लिए तैयार करते हैं। डोनेशन और सिफारिश का सहारा लेते हैं। इसमें असफल रहने के बाद एक दलाल की मदद से गरीब बनकर आरटीई कोटे के तहत सीट पाने में जुट जाते हैं। इस दौरान एक और गरीब की मदद से अंततः नामी स्कूल की सीट पाने में सफल हो जाते हैं। दाखिले की दौड़ में लगाई जाने वाली ये तिकड़में ही फिल्म में कामेडी और गंभीरता का कारण बनती हैं।
सधा हुआ मैसेजः फिल्म देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी को लेकर देश में बने दोहरे रवैये पर कड़ा प्रहार करती है। यह बताती है कि कैसे मां-बाप को यह डर सताता है कि बच्चा हिंदी माध्यम से पढ़ाई करेगा तो अंग्रेजी नहीं सीख पाएगा। अगर कोई उससे अंग्रेजी में बात करेगा तो वह खुद को हीन समझेगा और उसकी रूह कांप उठेगी। फिल्म की हिरोइन का यह संवाद ...इस देश में अंग्रेजी जुबान नहीं, क्लास (वर्ग) है राज क्लास.. इस क्लास में घुसने के लिए एक अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. अंग्रेजी की अहमियत को दरसाता है। फिल्म के कुछ दृश्य जैसे स्कूलों में स्वीमिंग, घुडसवारी सिखाने जैसे इंतजाम जो उनके फाइव स्टार बन जाने का खुलासा करते हुए पैसे के बोलबाले पर चोट करते हैं तो स्कूलों के बाहर लगी लंबी लाइन जैसे दृश्य मां-बाप की बेबसी को बयां करते हैं। आरटीई के तहत गरीब कोटे की सीटों का महंगे स्कूल कैसे बंदरबाट करते हैं इस पर भी चोट की गई है।
नएपन का अभावः हिंदी मीडियम भले ही शिक्षा-व्यवस्था के काले चेहेरे और आरटीई के तहत दाखिले की व्यवस्था पर चोट करती हो,लेकिन फिल्म में नएपन का अभाव है। फिल्म में दिखाई गई ऐसी कोई बात नहीं है जो आप पहले  से न जानते हों। ऐसा लगता है कि निर्देशक साकेत चौधरी किसी जल्दी में थे, इसीलिए उन्होंने सिर्फ मुद्दों को छुआभर है। बिना पर्याप्त  शोध के एक गंभीर विषय को फिल्म में गुथ डाला। अगर ठीक से पड़ताल की गई होती तो उनसेस स्कूलों की राजनीति, नेताओं-नौकरशाहों का गठजोड़ जैसे तथ्य नहीं छुप पाते।
कलाकारों ने संभालाः अभिनेता इरफान खान के भावपूर्ण अभिनय और संवाद अदायगी के सभी कायल हैं। अन्य  फिल्मों की तरह इसमें भी उन्होंने अपनी इन खूबियों का बखूबी लोहा मनवाया है। पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर के साथ उनकी जोड़ी जमी है। इरफान ने चांदनी चौक के पैसे वाले व्यापारी राज बत्रा और सबा ने उनकी नकचढ़ी लेकिन बच्ची के लिए परेशान मां मीता का रोल निभाया है। इन दोनों के बीच अभिनेता दीपक डोबरियाल ने श्याम के रूप में अपनी दमदार उपस्थित दर्ज कराई है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि श्याम की एंट्री के बाद ही फिल्म उड़ान भरती दिखती है। कंसलटेंट के रूप में तिलोत्तमा शोम ने भी प्रभावित किया है। हालांकि फिल्म में नेहा धूपिया, अमृता सिंह और संजय सूरी सिर्फ खानापूर्ति ही करते नजर आए हैं।

दूसरी फिल्मों से अलगः देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर अब तक कई फिल्मे बन चुकी हैं। इनमें राजू हिरानी की थ्री इडियट और तारें जमीं पर का नाम सबसे पहले आता है। दोनों फिल्में जिस तरह से हंसी-हंसी में पढ़ाई जैसे गंभीर विषय पर बड़ा सबक देती हैं, वैसा हिंदी मीडियम में नहीं है।इसके अलावा फिल्म इंग्लिश-विंग्लिश की तरह अंग्रेजी नहीं आने की कसक को भी मां-बाप में पूरी तरह नहीं उभार पाई। इसके बावजूद निर्देशक साकेत चौधरी की  कोशिश को नकारा नहीं जा सकता। खासकर गरीबों के कोटे की सीट को अमीरों द्वारा खा जाने की प्रवृत्ति पर प्रहार करने में वह कामयाब रहे हैं। 

Thursday, May 4, 2017

सलमान की ट्यूबलाइट चमकी



अभिनेता सलमान खान की ट्यूबलाइट गुरुवार को चमकी।  भरपूर रोशनी बिखेरने से पहले की ट्यूबलाइट की यह चमक ऐसी थी कि कुछ ही घंटों में प्रशंसकों के आंखें चौंधियाने लगी। रात नौ बजे फिल्म ट्यूबलाइट का पहला टीजर जारी किया गया। यूट्यूब पर पर कुछ ही घंटों में इसे लाखों लोगों ने देखा। रात दो बजे तक दर्शकों की संख्या 11 लाख 19 हजार 542 के आंकड़े पर पहुंच चुकी थी। यही नहीं अनकट टीजर और ट्यूबलाइट पर रिएक्शन जैसे कुछ और वीडियों को भी हजारों की तादाद में लोग देख चुके थे। ट्यूबलाइट पर सल्लू के चाहने वालों का यह रेस्पांस चौकाता नहीं है, क्योंकि पिछले पांच दिनों से वह खुद प्रशंसकों को इसकी जानकारी दे रहे थे। इसके लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया। अपने टिवटर हैंडल से हर दिन एक ट्वीट कर रहे थे। फिल्म के पोस्टर के साथ चुटीले अंदाज में सल्लू मियां का कमेंट होता था। इन ट्वीट को ट्यूबलाइट के आफिशयल टिवटर हैंडल से भी रिट्वीट किया जा रहा था।

सलमान के अकाउंट से ट्यूबलाइट टीजर प्रमोशन का पहला ट्वीट 29 अप्रैल को आया।  इसके साथ जारी पोस्टर में बस से झांकते सल्लू मिया सलाम ठोकते दिखे । साथ ही उन्होंने लिखा- कहीं जा नहीं रहा हूं, आपके पास आ रहा हूं. बस 5 दिन में। अगले दिन पहाड़ी पर आसमान की ओर हाथ उठाए खड़े दो युवकों के फोटो (फिल्म का सीन) को टैग करते हुए लिखा-मजा आएगा...सिर्फ चार दिन बाकी। इसके बाद बस की छत पर हाथों में हाथ डालकर बैठे सलमान और अरबाज का फोटो पोस्ट किया गया। साथ ही सलमान ने लिखा-दो भाई आ रहे हैं—बस दो दिन में।सिर्फ एक दिन बाकी के संदेश के साथ एक और फिल्मी फोटो अगले दिन जारी किया गया। सलमान इसमें भीड़ में हाथ उठाए हुए दिख रहे थे। चार तारीख को सल्लू मियां ने पांच दिन जारी किए गए पोस्टरों का कोलाज बनाकर उन्हें पोस्ट किया और ट्वीट कर बताया कि बस थोड़ी देर और...आ ही रहा हूं। ट्यूबलाइट का टीजर आज रात 9 बजे। इसके साथ कबीर खान, अमर बुटाला और एसके फिल्म को टैग किया गया। ठीक नौ बजे टीजर जारी होते ही सलमान ने जल जा, जल जा..जल गया लिखते हुए ट्वीट किया। फिल्म का टीजर जारी करने का यह अंदाज पहले की ही तरह चुटीला था। फिल्म के टीजर का प्रशंसकों को किस बेसब्री के साथ इंतजार था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रोज सलमान के ट्वीट हजारों की संख्यां में लाइक किए गए और इससे ज्यादा बार इन्हें रिट्वीट किया गया। टीजर को मिल रही इस लोकप्रियता से फिल्म को लेकर लोगों में बन रहे रोमांच का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है। हो भी क्यों न आखिर इस बार भी कैमरे के सामने और कैमरे के पीछे की सलमान और कबीरखान की हिट जोड़ी जो एक साथ आ रही है।  ट्यूबलाइट ईद पर रिलीज होगी।  

Monday, May 1, 2017

अंडे पर ही होगी उसकी पूरी जन्मकुंडली

अंडे पर ही होगी उसकी पूरी जन्मकुंडली
पहले मुर्गी आई या अंडा इस सवाल का जवाब आज तक अच्छे-अच्छे तुरर्मखां भी नहीं दे सके। कोई कहता है कि पहले अंडा आया और इससे मर्गी जन्मी, लेकिन अंडा दिया किसने ? जाहिर है पहले मुर्गी आई। पीढी-दर-पीढी मथ रहे इस सवाल पर अब ज्यादा दिमाग खपाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अंडा कब आया यह जानना आपके लिए चुटकी बजाने जितना आसान हो जाएगा।
दरअसल सरकार जल्द ही ऐसी व्यवस्था करने जा रही है जिससे अंडा अपनी पूरी जानकारी खुद ग्राहक को देगा। जैसे कब उसका जन्म हुआ और उसकी पौष्टिकता कितनी है। अंडों की गुणवत्ता को लेकर आ रही शिकायतों के मद्देनजर सरकार जल्द  यह कदम उठाने जा रही है। इसके तहत अब अंडे पर मुहर लगेगी, जिसमें उसके जन्म की तारीख लिखी होगी। अंडा कितना सेहतमंद है यह भी आपको आसानी से पता चल जाएगा। सरकार इसके लिए एक निशान बनाएगी। आर्गेनिक का यह निशान इस बात की गारंटी होगा कि सेहतमंद मुर्गी ने ही यह अंडा दिया है। अंडा देने वाली मुर्गी को सिर्फ जैविक दाना ही दिया गया है, इसके लिए भी यह निशान होगा। दरअसल पोल्ट्री फार्म ज्यादा उत्पादन के लालच में मुर्गियों को एंटीबायोटिक देते हैं। इससे उनकी सेहत पर तो असर पड़ता ही है अंडों की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। अंडों में एंटीबायोटिक, एफलाटाक्सिन और माइक्रोएब्स मिलने के बाद ही सरकार अंडों की गुणवत्ता के मानक तय करने की दिशा में सक्रिय हुई है। माइक्रोएब्स कई बीमारियों जैसे फ्लू और खसरे का कारण बनते हैं। एफलाटाक्सिन बैहद विषैले होते हैं और कैंसर को जन्म देते हैं। देश में वर्ष 2017 में करीब 55.11 बिलियन अंडों का उत्पादन हुआ। कुल उत्पादन में पोल्ट्री फार्म की हिस्सेदारी 75 प्रतिशत है।

Friday, April 28, 2017

सियामी से रनवीर तक कई को कास्टिंग काउच का शिकार बनाने की कोशिश


रनवीर सिंह के साथ सियामी

फिल्म निर्माता मधुर भंडारकर की हत्या की साजिश में तीन साल कैद की सजा पाने वाली मॉडल प्रीति जैन यौन शोषण का आरोप लगा फिल्म इंडस्ट्री में कास्टिंग काउच का तूफान ला चुकी हैं। प्रीति ने मधुर पर 2004 में बलात्कार का आरोप लगाया था, जो कोर्ट में साबित नहीं हो सका। लेकिन इसने चमचमाते बॉलीवुड की कास्टिंग काउच की गंदगी को सतह पर ला दिया था। वैसे यह पहली बार नहीं था। इससे पहले भी बॉलीवुड में काम के एवज में सेक्सुअल फेवर मांगने वालों के जब तक किस्से सामने आते ही रहते थे। कुछ अभिनेता और अभिनेत्रियों ने खुलकर तो कुछ ने दबी जबान में ऐसे सेक्सुअल फेवर के प्रस्ताव मिलने की बात भी मानी। इनमें सबसे नया नाम है फिल्म मिर्जिया से बॉलीवुड में दस्तक देने वाली अभिनेत्री सियामी खेर। सियामी ने कहा कि अपने संघर्ष के दिनों में वह ऑडिशन देने के लिए घंटों लाइनों में लगती थी। अपनी बारी के इंतजार के दौरान उनका पाला कई बार ओछी मानसिकता वाले डायरेक्टरों से पड़ा।  16 साल की उम्र से मॉडलिंग कर रही सियामी ने कहा कि शुक्र है पहला फिल्मी ब्रेक मिलने से पहले ही मैने इंड्रस्ट्री का यह स्याह रूप भी देख लिया।
अभिनेत्री कंगना रनौत, टिस्का चोपड़ा, सुरवी चावला भी कास्टिंग काउच को लेकर खुलासा कर चुकी है। अभिनेता रनवीर सिंह, आयुषमान खुराना, प्रियांशु चटर्जी ने भी कई मौकों पर बातचीत के दौरान ऐसे ओछे प्रस्ताव मिलने का खुलासा किया है। फिल्म इंड्रस्ट्री की क्वी ‘क्वीन’ कंगना ने बताया था कि एक बार उनसे यौन सुख संतुष्टि का प्रस्ताव दिया गया था। कंगना ने कोई समझौता करने के बजाय प्रस्ताव को खारिज कर दिया। अभिनेत्री सुरवीन चावला भी दक्षिण भारतीय फिल्मों में काम के दौरान कास्टिंग काउच का शिकार होने से बची। सुरलीन ने कहा कि मैने ऐसा प्रस्ताव स्वीकार करने के बजाय अपनी प्रतिभा और मेहनत के बूते काम हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत की। आमिर खान, प्रकाश झा, नागेश कुकनूर समेत कई दिग्गजों के साथ काम कर चुकीं और विभिन्न भाषाओं में 45 से ज्यादा फिल्मे करने वाली अभिनेत्री टिस्का चोपड़ा ने भी कहा था कि ऐसे प्रस्ताव मिलते हैं। लेकिन आपको काम पर भरोसा करते हुए इन्हें सख्ती के साथ खारिज कर देना चाहिए। 




कंगना रनौत

सुरवीन चावला

आयुषमान खुराना

अभिनेता रनवीर सिंह ने भी स्वीकारा था कि वह भी एक बार कास्टिंग काउच के शिकार होते-होते बचे। ऐसा ही कुछ फिल्म विक्की डोनर से अपनी धाक जमा चुके अभिनेता आयुषमान खुराना के भी साथ हुआ। उन्हें भी एक डायरेक्टर ने सेक्सुअल फेवर के लिए अप्रोच किया, लेकिन उन्होंने कड़ाई से इसे खारिज कर दिया। तमाम अभिनेता और अभिनेत्री कास्टिंग काउच की सच्चाई को स्वीकार करते हैं, लेकिन उनका यह भी कहना है कि यह आप पर निर्भर करता है कि आप क्या करते हैं? उन्हीं लोगों का इस्तेमाल संभव है जो इसे होने देते हैं।

Friday, April 14, 2017

यहां सीटी सुनते ही भाग जाते हैं खुले में शौच करने वाले




स्वच्छता एक आदत है और लोग इस आदत को अपनाएं इसके लिए खूब  मेहनत करनी पड़ती है। यह मेहनत तब कई गुना बढ़ जाती है जब खुले में शौच जैसी आदत को छुड़वाना हो। लेकिन जहां चाह वहां राह। स्वच्छता अभियान में शामिल ग्राम पंचायतों ने गंदगी फैलाने की आदत का भी तोड़ ढूंढ निकाला है। ऐसी ही छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के बतौली विकासखंड की ग्राम पंचायत बिरिमकेला। पंचायत ने खुले में शौच करने वालों को रोकने के लिए सीटी से लैस लोगों का एक दल तैनात कर दिया है। नीली वर्दीधारी12 लोगों का यह दल खुले में शौच करने वालों को सीटी बजाकर आगाह करता है। इसके बावजूद नहीं मानने वाले लोगों से 500 रुपये जुर्माना वसूला जाता है। इस रकम को पंचायत के स्वच्छता कोष में जमा कराया जाता है।
ग्राम पंचायत अध्यक्ष फूलकुंवर कहती हैं कि स्वच्छता की आदत को बनाए रखने के लिए सतत निगरानी की जरूरत  होती है। इसलिए स्वच्छता निगरानी टीम भी बनाई गई हैं। केवल बिरिमकेला गांव में ही नहीं, पूरे प्रखंड के सभी गांवों में इनका गठन किया गया है। स्वच्छता अभियान में कोई ढिलाई नहीं आए इसका भी उपाय किया गया है। हर माह की 10 तारीख को ये टीमें अपने-अपने गांवों में स्वच्छता की स्थिति को लेकर बैठक करती हैं। ये ग्राम पंचायतें उदाहरण हैं कि यदि कुछ करने की ठान लें तो मुश्किलें रास्ता नहीं रोक पाएंगी।

Sunday, March 12, 2017

इरोम चानू शर्मिला : 16 साल के संघर्ष का यह सिला

इरोम क्या तुम्हे मणिपुर ने खारिज कर दिया है? यहां के लोगों को अफस्पा से कोई परेशानी नहीं है, तुम्हारा संघर्ष झूठा है? जिस कानून को हटाने के लिए तुमने जीवन के 16 साल दिए वे बेमतलब थे?
ये कुछ सवाल हैं, जो मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से मेरे मन में उठने शुरू हुए। इसका सबसे बड़ा कारण है इरोम की पार्टी पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस (पीआरजेए) की करारी हार। पीआरजेए ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और तीनों पर जमानत ही जब्त नहीं हुई, दो सीटों पर तो प्रत्याशियों को नोटा से भी कम वोट मिले। तीन बार से मुख्यमंत्री ओ इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरी इरोम खुद थोबल सीट पर कुल 90 वोट पा सकीं। जबकि यहां नोटा का बटन दबाने वाले मतदाता 143 थे। पीआरजेए के टिकट पर लड़ने वाली नजमा बीबी को वाबगई सीट पर मात्र 33 वोट मिले। प्रदेश की इस पहली मुस्लिम महिला प्रत्याशी से ज्यादा यहां नोटा (117 वोट) चला। तीसरे प्रत्याशी इ. लेचोमबाम को थेंगमीबंद सीट पर सिर्फ 573 वोट मिले।
जिस प्रदेश में 86फीसदी वोट पड़ें हों और उसमें भी महिलाओं का मत प्रतिशत सबसे ज्यादा हो, वहां पीआरजेए को मिले मामूली मत हिला देने वाले हैं।
 जनता जनार्दन के ‘आयरन लेडी’ के साथ इस सलूक की कुछ-कुछ भनक 9 नवंबर 2016 को अनशन खत्म करने के बाद ही मिलनी शुरू हो गई थी। ज्यादातर समर्थकों आंदोलन खत्म करने का फैसला नहीं भाया था।. अनशन तोड़कर जब वह घर की तरफ जा रही थी तो मुहल्ले वालों ने उन्हें संदेश भेजकर वहां आने से रोक दिया था। उन्हें उसी अस्पताल में रुकने को मजबूर होना पड़ जिसमें वह अनशन के दौरान भर्ती रही। यही नहीं ‘सेव शर्मिला ग्रुप’ ने भी उनसे नाता तोड़ लिया। समर्थकों ने आंदोलन खत्म करने को धोखा करार दिया था। फिर भी इरोम 16 सालों की अपनी तपस्या को नया आयाम देने के लिए राजनीतिक जीवन में उतरने के अपने इरादों पर अडिग रही। उनके इस जज्बे को देश-दुनिया में सराहा भी गया पर अब नतीजे कह रहे हैं कि सिर्फ बलिदान से चुनाव नहीं जीते जाते।
इरोम हारीं तो हैं, लेकिन उनकी इस पराजय ने एक मिथक ,राजनीति में जब तक अच्छे लोग नहीं आएंगे इसे बदला नहीं जा सकता, को भी तोड़ दिया है। साफ है कि भले ही लोग नेताओं को लेकर नकारात्मक छवि रखें पर वे इसे बदलने देना भी नहीं चाहते। आखिर अफस्पा के खिलाफ महज 28 साल की उम्र से भूख हड़ताल शुरू करने के बाद अस्पताल में बंदी के रूप में जीवन गुजारने वाली इरोम को इसके बाद भी क्या अपनी अच्छाई का सबूत देना बाकी था? याद रहे14 मार्च को 45 साल की हो रहीं इरोम ने अपनी अब तक की जिंदगी का लगभग एक तिहाई समय बंदी के रूप में गुजारा है।

आगे का रास्ता तंग
प्रचार के दौरान विधानसभा चुनाव को केवल अभ्यास बताते हुए अगली बार पूरे दमखम से मैदान में उतरने का भरोसा देने वाली इरोम उम्मीद से उलट नतीजे मिलने से हताश हैं।  राजनीति को अलविदा भी कह सकती हैं। नतीजों के बाद इरोम ने कहा कि वह चुनाव परिणाम से खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही हैं, लेकिन इसमें लोगों का कोई दोष नहीं है. वोट के अधिकार पर पैसों की ताकत भारी पड़ी है। राजनीति को छोड़ सकती हूं, लेकिन अफस्पा के खिलाफ दूसरे मंचों से मेरी लड़ाई जारी रहेगी। राजनीति को हथियार बना संघर्ष को मुकाम तक पहुंचाने की दम तोड़ती यह कोशिश शुभ संकेत नहीं है।



यूं हुई थी अनशन की शुरुआत
इरोम चानू शर्मिला को वर्ष 2000 में इंफाल में हुई एक घटना ने झकझोर दिया था। दरअसल यहां बस स्टाप के पास मणिपुर राइफल्स के काफिले पर हमला किया गया था। इसके बाद 2 नवंबर 2000 को मणिपुर राइफल्स के जवानों ने यहां 10 यात्रियों का कथित एनकाउंटर किया था। मरने वाले यात्रियों में 1998 की राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार विजेता सीनम चंद्रमणि भी शामिल थी.  इसके बाद इरोम ने मणिपुर से अफस्पा हटाने की मांग को लेकर अनशन शुरू कर दिया था। तीन दिन बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया।




इंफाल में चुनाव नतीजों के बाद निराश बैठीं इरोम चानू शर्मिला


Thursday, February 16, 2017

पढ़ना जरूरी है, पर सोच-समझकर


सबके पास सिर्फ 24 घंटे हैं। इसी में से समय निकालना होता है। पत्रकार हो कायदे का पढ़ो-लिखो, नहीं तो धीरे-धीरे खत्म हो जाओगे।‘ ‘हिन्दुस्तान’ में अगस्त 2016 में हुई डोसा कनेक्शन मीट में प्रधानसंपादक श्री शशिशेखर जी के इन शब्दों ने गहरी चोट की। ठान लिया कि हर माह एक किताब जरूर पढूंगा। शौक भले ही कहानी और उपन्यास का रहा हो, लेकिन इनके बजाय कुछ और पढूंगा। ऐसा कुछ जो मेरी कमियों को दूर करने और मुझमें बदलाव लाने में मददगार साबित हो। लेकिन पढूं क्या? यह सवाल मुझे मथने लगा। मन में आया बुकस्टाल पर जाकर किताब छांटी जाए, लेकिन तुरंत ही यह विचार खारिज हो गया। जेब अभी इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। पढ़ना तो तब भी है, कोई और रास्ता निकाला जाए। दोस्तों से किताब उधार मांगकर पढ़ी जाए, लेकिन सवाल फिर वही, किससे? दो-तीन दिन इसी जद्दोजहद के बीच गुजरे और फिर एक दिन पहुंच गया कादिबंनी के सहयोगी संपादक श्री अजय कटारा जी के पास।
अचानक मुझे अपने केबिन में दाखिल होता देख कटारा जी चौंक उठे। मैने नमस्कार किया तो बोले-अरे पवनेश तुम यहां कैसे? दरअसल, कटारा जी का केबिन दफ्तर के ग्राउंड फ्लोर पर था. पहली मंजिल पर जब भी मिलते तो मैं उनसे कहता कि आपसे मिलने आना है, लेकिन जनरल डेस्क की  व्यस्तता के चलते जा नहीं पाता था। जब भी वह ऊपर मिलते तो कहते -अरे आए नहीं। ऐसे में उनका चौंकना वाजिब था। अपने केबिन में किताबों से घिरे हुए कटारा सर से मैने अपनी मनस्थिति बयां कर डाली। उन्होंने कहा, देखों, और छांट लो जो पसंद हो। जो पढ़ना चाहे ले लो, लेकिन शर्त यह है कि किताब पढ़नी होगी। इसी वादे के साथ तुम किताब ले जा सकोगे।‘ मैने वहां से किताब चुनी-‘इरोम शर्मिला और आमरण अनशन।‘ इरोम के बारे में मुझे जानने का मौका मिलेगा यह सोचकर मैने यह किताब ली। इसी के साथ शुरु हुआ फिर से किताब के साथ खुद को जोड़ने का सिलसिला। पर हाय री किस्मत! बोहनी ही खराब हो गई। शुरु के दो-चार पेज पढ़े, फिर बीच  से पढ़ी, अंत के भी कुछ पेज पढ़े पर यह समझ ही नहीं आया कि यह किताब क्यों लिखी गई है? इसे पढ़कर हासिल क्या होगा? सामान्य जानकारी के अलावा यह सिर्फ लेखक के रोजनामचे और इरोम के संघर्ष को लेकर अखबारे के विश्लेषण जैसी थी। फिर भी मैने खुद को इसमें खपाया लेकिन तीन दिन बाद ही हिम्मत जवाब दे गई। इसी  के साथ किताबी सफर शुरू होते ही झटके के साथ रुक गया।

(फिर से  कैसे पकड़ी पढ़ने के शौक ने रफ्तार और क्या पढ़ा ये अगली बार..)

Sunday, February 5, 2017

एक रुपया और रिश्ता


एक रुपये में आप क्या-क्या ले सकते हैं. जरा सोच कर देखिए। एक या दो टाफी, एक माचिस। एक छोटा कोने वाला समोसा. ज्यादा दिमाग पर जोर डालेंगे तो एक दो चीज और याद आ सकती है। य़ानी खरीद सकने लायक एक रुपये में कोई बहुत ज्यादा विकल्प नहीं है। पर एक बेहद बड़ी चीज सिर्फ इस एक रुपये में आसानी से तय़ हो जाती है। वह भी अबसे नहीं सालों से । जब इसकी कीमत होती थी तब भी और अब जब इसकी कीमत मामूली बची है तब भी।
नहीं समझे..बताता हूं. य़ह है रिश्ता। जी हां। पश्चिमी यूपी और हरियाणा के एक बेहद बड़े हिस्से में एक रुपये में ही रिश्ते तय हो जाते हैं। यह दहेज को मात देने का शायद यहां का सबसे पुराना और आजमाया हुआ नुस्खा है।  लेन-देन के नाम पर सिर्फ रुपये की बात तय कर वर-वधू पक्ष अपनी और से यह पक्का कर देते है कि इसके अलावा और कुछ नहीं होगा। हां, जहां तक बारात के स्वागत-सत्कार और  दूसरी बाते हैं उनमें वधू पक्ष स्वतंत्र है वह अपनी सामर्थ्य से जो चाहे करे। इसी परंपरां का मैने कई बार निर्वहन होते देखा है। आज भी ऐसे ही एक विवाह के बारे में सुना। जिसमें एक रुपये के रिश्ते की बदौलत न केवल एक बेटी की विदाई हुई, बल्कि दोस्तों को उसमें नवदंपत्ति के लिए फ्रिज, सिलाई मशीन, अलमारी जैसेे गृहस्थी के सामान अपनी और से देते हुए देखा। कितना अजब है न अपना यह समाज जिसमें शादी में करोड़ो खर्च कर अपनी शान बघारने वाले लोग हैं तो साथ ही एक रुपये के रिश्ते की व्यवस्था भी है । जिसके तहत मां-बाप सम्मान के साथ बेटी के हाथ पीले करने में भी समर्थ हैं।













                                             एक और वज्रपात, नीरज भैया को  लील गया कोरोना  दिल के अंदर कुछ टूट सा गया है, ऐसा कुछ, जिसका जुड़...