Wednesday, September 24, 2008

राजनीति के मकड़जाल में फंसा आतंकवाद निरोधी कानून

आपको याद हो तो दिल्ली में हालिया बम धमाकों के बाद प्रधानमंत्री ने खुद खुफिया तंत्र की चूक स्वीकार की थी। साथ ही पोटा को लागू करने के भी संकेत दिए, लेकिन इस पर तंरत ही हाय तौबा शुरू हो गई। अगले ही दिन सूचना प्रसारण मंत्री ने इसका खंडन कर दिया कि सरकार पोटा को लागू करने जा रही है। लगे हाथ उन्होंने सख्त कानून की वकालत कर भूसे पर लीपने जैसा प्रयास भी कर दिया। अब आज कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने राजग सरकार के समय हुई आतंकवादी घटनाओं को गिनाते हुए पोटा को विफल कानून करार दिया। सख्त कानून का राग अलापाते हुए राहुल ने यह भी कह डाला कि आतंकवाद से मजबूत इच्छा शक्ति से लड़ा जा सकता है। हाय रे लोकतंत्र, क्या बातों से मजबूत इच्छा शक्ति पाई जा सकती है। सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के युवराज को क्या यह नहीं मालूम कि यह मजबूत इच्छा शक्ति किसी पड़ोसी देश से नहीं आएगी। सख्त कानून का निर्माण और उसे लागू करने की जिम्मेदारी उस केंद्र सरकार की ही है, जिसका प्रधानमंत्री उनकी पार्टी का है। साथ ही इसके लिए उस वोट बैंक की राजनीति को त्यागना होगा जो देश का बंटाधार कर रही है। यह सभी जानते हैं कि आतंकवादी किसी धर्म, जाति या संप्रदाय के नहीं होते। वे सिर्फ हत्यारे होते हैं। इसके बावजूद यह हमारे राजनेता ही हैं, जो अपनी बयानबाजियों से जांच एजेंसियों की मुश्किलें बढ़ा देते हैं। सिमी और इंडियन मुजाहिदीन की तुलना बजरंग दल और आरएसएस से करते हैं। जामिया नगर मुठभेड़ में आतंकियों की गिरफ्तारी के बाद वामपंथियों का बयान आता है कि पुलिस इस तरह से काम करें कि संप्रदाय विशेष खुद को अलग-थलग न महसूस करें। अब वामदलों से पूछा जाए कि इससे संप्रदाय विशेष के अलग पड़ने का क्या मतलब? जिसने जो बोया है वह तो काटेगा है। यदि आतंकवादी सबसे ज्यादा एक संप्रदाय के लोग ही निकल रहे हैं तो शिकंजा भी उसी संप्रदाय पर कसेगा। आप अपने बयानों से जहर क्यों घोल रहे हैं? देश हित से बड़ा कुछ नहीं होता। एक्स, वाई और जेड श्रेणी के मजबूत सुरक्षा कवच के सहारे अपने आप को सुरक्षित पा रहे नेतागण यह जान लें कि आज भले ही आतंकवादी गतिविधियों का शिकार निर्दोष लोग बन रहे हों, लेकिन ज्यादा समय तक वह खुद भी नहीं बच पाएंगे। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हालात से इसे बखूबी समझा जा सकता है। आतंकवाद का भस्मासुर इन देशों में अब अपने रहनुमाओं को भी नही बख्श रहा है। कड़े सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद आतंकवादी यहां बड़े नेताओं को ?अपना निशाना बना रहे हैं। बेनजीर अपनी जान गंवा चुकी है। हाल ही में ली मेरिएट होटल में हुए धमाके में राष्टपति जरदारी, प्रधानमंत्री गिलानी और सेनाध्यक्ष कियानी बाल-बाल बचे हैं। इस लिए भारतीय राजनीतिक दल इससे सबक लें और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को वोटबैंक की राजनीति से नहीं जोड़े। आतंकवाद पर सख्त प्रहार के लिए कड़ा कानून बनाएं। उसका दुरुपयोग होता है तो उसमें संशोधन करें और यह प्रक्रिया तब तक जारी रखें जब तक वह फुलप्रूफ नहीं बन जाएं। सिर्फ दुरुपयोग का राग अलाप कर कानून को खारिज नहीं करें। जब मानवाधिकारों का सबसे बड़ा पैरोकार अमेरिका नाइन इलेवन के बाद अपने यहां बेहद सख्त कानून बना उसे लागू कर सकता है तो बार-बार धमाकों से दहलने के बाद हम क्यों नहीं? अगर यह कहा जाए कि आतंकवाद निरोधी कानून पोटा राजनीति का शिकार हुआ है, तो यह बिल्कुल भी गलत नहीं होगा। कमियां पोटा में नहीं थी, उसे लागू करने वालों में है। आतंकवाद के खिलाफ बना यह कानून, पोटा, राजनीति का ऐसा शिकार हुआ कि उसके मकड़जाल से बाहर नहीं आ सका और बेहतर परिणाम देने से पहले ही दम तोड़ गया। आतंकवाद से लड़ने के लिए बने हथियार पोटा को नेताओं ने अपने स्वार्थों को साधने के हथियार में तब्दील कर दिया।
------पवनेश कौशिक

Tuesday, September 23, 2008

विश्वास है जरूरी

ग्रेटर नोएडा में इटली की बहुराष्टीय कंपनी के सीईओ की हत्या की घटना की जितनी निंदा की जाए वह कम है। कर्मचारियों ने जो किया उसे किसी भी कीमत पर सही नहीं ठहराया जा सकता। इस घटना के दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए। आखिर सभ्य समाज में हिंसा की भी विवाद का हल नहीं है। सभी मसले बातचीत से सुलझाए जा सकते हैं। इस घटना से नियोक्ता और कर्मी के संवेदनशील और भावुक रिश्ते को गहरा आघात पहुंचा है। लेकिन यह भी बिल्कुल सही है कि ऐसी घटनाओं का कारण इस भावुक रिश्ते के बीच पैदा हुई अविश्वास की खाई है। यह खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। इसका कारण दोनों पक्षों की एक-दूसरे से उम्मीदें हैं। यह पूरी होने के बजाय इनका दायरा बढ़ता ही चला जा रहा है। कर्मचारी हर सूरत में अपने द्वारा किए जा रहे काम यानि आउटपुट को बेहतर ठहराता है तो प्रबंधन उसमें हर बार और सुधार की और ही इशारा करता है। मालिक काम से संतुष्ट नहीं है, तो कर्मचारी दाम से। एक-दूसरे की प्रशंसा और प्रेरणा से संस्थान को प्रगति के मार्ग पर आगे ले जाने के उपाय न के बराबर नजर आते हैं। नियोक्ता और कर्मियों में दोषारोपण का सिलसिला ही चलता रहता है। यह ठीक नहीं है। ऐसा कर दोनों ही घाटे में हैं और रहेंगे। अच्छा हो कि नियोक्ता कर्मियों की स्थितियों और उनकी समस्याओं को सुलझाने के मामले में संजीदगी बरते। साथ ही कर्मचारी भी वह काम कर दें, जिससे नियोक्ता को कोई शिकायत नहीं रहे। वरना ऐसी घटनाएं होंगी और दोनों इसका खामियाजा उठाते रहेंगे। आज ग्रेटर नोएडा में जघन्या घटना हुई है कल गुड़गांव के हीरो होंड़ा में कर्मियों की पिटाई की घटना की पुनरावृत्ति होगी।

Sunday, September 21, 2008

सांप्रदायिक चश्मा उतारें

हर मुठभेड़ की तरह दिल्ली के जामिया नगर में हुई आतंकी मुठभेड़ को भी समुदाय विशेष के तथाकथित बुद्धिजीवी और इस वर्ग के रहनुमा मजहबी रंग देने से नहीं चूके। मुठभेड़ में दो आतंकवादियों की मौत को पुलिस का प्रायोजित कार्यक्रम करार दे दिया गया। मुठभेड़ के कुछ समय बाद ही टीवी पर दिखाई पड़ने वाले ज्यादातर स्थानीय चेहरे पुलिस पर आरोप लगाते हुए सुनाई दिए। बेर्शमी के साथ ये लोग जहां मारे गए आतंकियों को निर्दोष बता रहे थे वहीं, सभी मुठभेड़ों को संप्रदाय विशेष को परेशान करने वाला करार दे रहे थे। मुठभेड़ में इंस्पेक्टर एमसी शर्माऔर एक हेड कांस्टेबल को गोली लगना भी इनके लिए पुलिस का प्रोपेगेंडा था। पुलिस द्वारा शर्मा को गंभीर रूप से घायल बताए जाने के बावजूद सभी मुठभेड़ पर ही उंगली उठा रहे थे। दिल्ली के साथ-साथ यूपी में तो और भी बुरा हाल था। आजमगढ़ के सरायमीर में लोगों ने पकड़े गए आतंकी सैफ को सही बताते हुए हंगामा काटा और मीडिया के साथ मारपीट की। हर चीज को सांप्रदायिक चश्मे से देखने से आदी हो चुके देश के इन सम्मानित लोगों को अब क्या कहा जाए ? पुलिस को कठघरे में खड़ा करने और आतंकियों की पैरवी करने से पहले ये लोग थोड़ा इंतजार कर लेते तो इनका क्या बिगड़ जाता। पुलिस को मिले सुबूत दूध का दूध और पानी का पानी तो कर ही देते। और ऐसा हुआ भी। मुठभेड़ स्थल से मिले सबूतों ने दोनों को आतंकी साबित कर ही दिया। पर पुलिस पर उंगली उठाने वाले लोगों के क्षुद्र रवैये से तो साफ है कि देश और देशवासियों की सुरक्षा से इनका कोई सरोकार नहीं है। कट्टरपंथियों के हाथ की कठपुतली बन चुके ये लोग भी आतंकियों की श्रेणी में ही खड़े हैं। देश में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। आतंकी जहां अपनी वारदातों से देश को नुकसान पहुंचा रहे हैं, वहीं ये उन्हें प्रश्रय और उनकी पैरोकारी कर उनका सहयोग कर रहे हैं। आखिर ये लोग यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं, कि यह देश उनका अपना है। इसके बाहर इनका कोई सहारा नहीं है। आतंकी गतिविधियों में लगो जो लोग हमर्दद नजर आते हैं वे वास्तव में अपने नहीं है। देश में आतंकवाद का शिकार बनने वाले लोग अपने होते हैं। ऐसे चंद लोगों के कारण ही पूरा संप्रदाय अविश्वसनीय हो गया है। हांलाकि दिल्ली पुलिस के खुलासे और इंस्पेक्टर की शहादत के बाद अब इन सभी लोगों की जुबान पर ताले लगे हुए हैं। लेकिन इससे क्या। अविश्वास की खाई तो और चौड़ी हो ही चुकी है। मैं तो यह सोच कर सिहर उठता हूं, कि यदि इस आपरेशन बटला हाउस में पुलिस को कोई क्षति नहीं उठानी पड़ती तो तब क्या होता? एक बार फिर वोट बैंक की राजनीति शुरू हो जाती। अभी तक खामोश बने हुए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग और राजनेता आतंकी अबू बशर के घर की भांति फिर सैफ के घर पर जुटने शुरू हो जाते। सरकार और प्रशासन को कोसकर आतंकवाद को जड़ों को सींचते। देश में दिनोदिन बढ़ रहे आतंकवाद के खतरे के मद्देनजर अब चेत जाने की जरूरत हैं। यह हम सबका देश है। आतंकी घटना के वक्त घटनास्थल पर नहीं होने से हम भले ही बच जाए, लेकिन इसका असर हम पर जरूर पड़ता है। वह हमला घायल करता है। इसलिए संकीर्ण नजरिया और सिर्फ अपना हित साधने की मानसिकता छोड़नी होगी। आतंकी किसी कौम या मजहब के नहीं हैं, यह छोटी से बात जो अभी तक चंद लोग समझ कर भी नहीं समझ रहे, उन्हें समझनी ही होगी। वरना केवल कुछ साल बाद ही इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की कतार में भारत भी होगा। अभी हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार पिछले कुछ सालों में विश्व में इराक के बाद सबसे ज्यादा धमाके भारत में हुए हैं। यही नहीं इनमें इराक के बाद सबसे ज्यादा मौतें भी भारत में ही हुई हैं। इसलिए नजरिया बदलें और आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दें।

                                             एक और वज्रपात, नीरज भैया को  लील गया कोरोना  दिल के अंदर कुछ टूट सा गया है, ऐसा कुछ, जिसका जुड़...