Saturday, November 8, 2008

भारतीय मीडिया का ओबामा पर न्योछावर होना

नस्लवाद के दंश से जूझ रहे अमेरिका में बराक हुसैन ओबामा का अश्वेत राष्ट्रपति के रुप में चुना जाना बेशक एक बेहद बड़ी घटना है। इस कदम के जरिये दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका ने एक नया पड़ाव तय किया है। लेकिन ओबामा के निवार्चन को लेकर भारतीय मीडिया ने जो उत्साह दिखाया वह हैरान करने वाला है। क्या समाचार पत्र और क्या न्यूज चैनल कवरेज करते हुए सभी इस कदर बौराए कि उन्हें होश ही नहीं रहा कि क्या लिखे और क्या दिखाएं। समाचार पत्र ओबामा विशेषांक में तब्दील हो गए तो न्यूज चैनल ओबामा पुराण के वाचन में तल्लीन। खबरों के जरिये आम आदमी की दुनिया बदल देने का दावा करने वाले समाचार चैनल चार नवंबर को दिन भर ओबामा के स्तुतिगान में जुटे रहे तो पांच नवंबर को अखबार ओबामामय थे। इस फेर में अन्य जरूरी खबरें छूटी तो इसका किसी को कोई अफसोस दिखाई नहीं दिया। ओबामा की इतनी कवरेज का कारण कोई तो समझाओ। ठीक है, अमेरिका विश्व का दादा है और उसके यहां मची हलचल का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है। अमेरिका में फिलहाल छाई आर्थिक मंदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के डावांडोल होने के बाद भारत-चीन समेत दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यवस्था कंपित हो उठी है। ओबामा का राष्ट्रपति चुना जाना भी बड़ी घटना है क्योंकि देर-सबेर सभी देशों पर इसका असर पड़ेगा। लेकिन यह विशुद्धरूप से राजनीतिक और आर्थिक होगा। इस लिहाज से इसका विश्लेष्ण होना चाहिये था। पर निवार्चन के तुरंत बाद यह चीर-फाड़ उचित नहीं कही जा सकती, क्योंकि ओबामा २० जनवरी,२००९ को देश की बागडोर संभालेंगे। अभी तक उन्होंने जो भी कहा वह चुनाव प्रचार के दौरान दिए गए भाषण थे। शासन में आने के बाद ये कितने सही साबित होंगे यह वक्त बताएगा। उनकी नीतियों और रीतियों का सही मायने में पता भी तभी चलेगा। फिर यह कौन नहीं जानता कि अमेरिका हर मायने में अमेरिका है। वहां चाहे ओबामा के पूर्वगामी डैमोक्रेट बिल क्लिंटन का शासन हो यहा रिपब्लिकन जार्ज बुश का। हर हाल में अमेरिकी स्वार्थ और हित ही सर्वोपरि हैं। भारतीय मीडिया में ओबामा के छाए रहने के बाद जो टीस उभरी वह थी अपने यहां होने वाले चुनाव की कवरैज। भारतीय मीडिया ने जितना ओबामा के बारे में दिखाया-सुनाया उसके बाद हम ओबामा के तो रोम-रोम के बारे में जान गए, लेकिन अपने नेताओं को लेकर भी क्या हमारी यही स्थिति है????? पहले सिख प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के बारे में भी क्या भारतीय मीडिया ने हमे ऐसा ही मौका मुहैया कराया था??? शायद नहीं। जबकि भारत में चैनल देखने और अखबार पढ़ने वाले करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनका अमेरिका के बारे में ज्ञान बेहद सामान्य है। उनका सरोकार अपना भारत है सात समुंदर पार का अमेरिका नहीं। इसलिए ओबामा के बारे में इतनी उल्टी करने से पहले भारतीय मीडिया को इन करोड़ों लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए था।

यू कान्ट, बराक हुसैन ओबामा !

गोलमेज सम्मेलन के लिए महात्मा गांधी लंदन गये तो लौटते हुए फ्रांस भी गये थे. उनके सामने प्रस्ताव आया कि आपको अमेरिका भी जाना चाहिए. बार-बार दबाव डालने के बावजूद महात्मा ने अमेरिका जाने से मना कर दिया. जब उनके पूछा गया कि आप मना क्यों कर रहे हैं तो उन्होंने कहा था अभी वह वक्त नहीं आया है कि मैं अमेरिका जाऊं. महात्मा गांधी भले ही अमेरिका न गये हों लेकिन बराक ओबामा के िनजी दफ्तर में महात्मा गांधी की फोटो लगी हुई है. आर्थिक और सामाजिक भ्रंस के कगार पर खड़े अमेरिका में ओबामा का राष्ट्रपति बनते ही क्या वह वक्त आ गया है कि महात्मा गांधी जैसी चेतना कह सके कि हां, अब वह वक्त आ गया है जब मुझे अमेरिका जाना चाहिए?नहीं, वक्त तो शायद अभी भी नहीं आया है. पिछले ४८ घण्टों से भारतीय मीडिया ने जिस तरह का रूख अख्तियार किया है उससे दो बातें साफ हो रही हैं. एक, अमेरिका ने लंबे समय से भारत में जो बौद्धिक पूंजी निवेश किया था उसका परिणाम सामने आ रहा है और दो, भारत में एक बड़ा अमरीकी फोटोकापी वर्ग खड़ा हो गया है जो हर लिहाज से अमेरिका को भारत से बेहतर मानता है. बात जब लीडरशिप की हो तब भी. दिल्ली के अमेरिकन सेन्टर और दूतावास में वहां के स्थानीय निवासियों के लिए कुछ सुविधाएं उपलब्ध करवायी गयी हैं कि अमेरिकी इस ऐतिहासिक क्षण में अपने देश के साथ जुड़ सकें. लेकिन अगर आप वहां जाएं तो पायेंगे कि वहां अमेरिकियों से ज्यादा अमेरिकी मानसिकता के भारतीयों का जमावड़ा है. वे अोबामा में "होप" की तलाश कर रहे हैं. "यस, वी कैन" की शब्दावली ऐसे रट रहे हैं मानों अमेरिका नहीं भारत में राष्ट्रपति का चुनाव पूरा हुआ है. माफ करिए, ये इतनी बड़ी समझ वाले लोग नहीं है जो विदेश नीति के जानकार हैं और इस ऐतिहासिक मौके पर भारत की भविष्य की रणनीतिक को देखते हुए योजनाएं बना रहे हैं. ये अस्तित्वहीन लोग हैं. ऐसे चमगादड़ जो मौका मिलते ही किसी भी डाल से चिपक जाते हैं.
अमेरिका ने लंबे समय से जो बौद्धिक पूंजीनिवेश किया था ये जमात उसी की पैदाईश है. मीडिया में भी वैसे ही लोगों की भरमार है जो अमेरिका को अपना स्वर्ग मानते हैं, इसलिए भांति-भांति से अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव जैसी एक खबर को २४ घण्टे का अभियान बना दिया गया है. महात्मा गांधी अगर इस मानस के होते तो वे भी आज के नव-धनाढ्यों के स्वर्ग अमेरिका जाते और दलील देते कि क्योंकि आज हमारे देश में अमेरिका प्रेमियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है इसलिए कूटनीतिक स्तर पर अमेरिका जाने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया था. शायद इसीलिए वो महात्मा गांधी थे क्योंकि वे अपनी जमीन पर खड़ा होना जानते थे. और शायद इसीलिए ओबामा के निजी कार्यालय में महात्मा गांधी की तस्वीर भी लगी हुई है. आज जो लोग अमेरिकी चुनाव को इस तर्क के साथ भारतीय जनमानस तक पहुंचा रहे हैं कि अमेरिका दुनिया का शीर्षस्थ देश है और भारत उभरता अमीर तो उसे अमीरी का यह प्रदर्शन करना ही चाहिए, वे बौद्धिक रूप से लकवाग्रस्त हैं. यह जानते हुए कि अमेरिका भ्रंस पर आ खड़ा हुआ है और उस भ्रंस में धंसने से पहले अमेरिका ओबामा के रूप में अंतिम सांस ले रहा है. यह अमेरिका तो जाएगा. अगर ओबामा सफल होते हैं तो अमेरिका वह अमेरिका नहीं रह जाएगा जो अब तक था. फिर भी हमारी मीडिया जिस अमेरिका के प्रभाव में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को विश्लेषण कर रही है वह वही अमेरिका है जिसके दुष्प्रभाव में खुद अमेरिका और पूरी दुनिया है.
भारत में आज बीपीओ और काल सेंटरों के जरिए कोई १५००० करोड़ का कारोबार हो रहा है. इसमें बड़ा हिस्सा अमेरिका का है. यही हाल साफ्टवेयर उद्योग का है. इन दो क्षेत्रों के अलावा एक तीसरा क्षेत्र भी है जहां अमेिरका सबसे बड़ा आयातक है. वह है आध्यात्मिक आयात. ओबामा का उदय पिछले सौ-सवा सौ साल में अमेरिका गये आध्यात्मिक उत्पादों का परिणाम है. ओबामा कोई व्यक्ति नहीं बल्कि उस मानसिकता का प्रतीक हैं जो वर्तमान अमेरिकी जीवन शैली को तिलांजलि देना चाहते हैं. वे उस नर्क से बाहर आना चाहते हैं जिसे अब तक विकास और आधुनिकता के नाम पर ढोंग की तरह ढोते रहे हैं. अपने पूरे चुनाव अभियान के दौरान ओबाना ने आध्यात्मिक पूंजी को सहेजने की सबसे जोरदार वकालत की थी. यह आध्यात्मिक पूंजी निजी तौर पर आंतरिक उन्नति और समाज के तौर पर शोषणमुक्त समाज का रास्ता दिखाती है. क्या भारतीय मीडिया ने इस लिहाज से ओबामा की जीत को देखा है? अगर हां तो वे तत्व कहां हैं जो अमेरिका को ओबामा तक ले आये हैं और अगर नहीं तो हमारी वह भारतीय दृष्टि कहां चली गयी जो महात्मा गांधी के पास थी. बराक हुसैन ओबामा केवल अमेरिका के लिए होप नहीं है. वे अमेरिका के फोटोकापी भारतीयों के लिए भी होप दिखाई दे रहे हैं. अमेरिकी और अमेरिका के फोटोकापी भारतीय दोनों ही यह भूल रहे हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति होने के बावजूद अमेरिकी व्यवस्था के सामने सबसे कमजोर व्यक्ति है. वह सिर्फ रबर स्टैम्प है जिसे अमेरिकी नेशनस्टेट बहुत लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर इस्तेमाल करता है और फेंक देता है. बराक ओबामा की मशहूर पुस्तक "ओडेसिटी आफ होप" उनके उम्मीदों के दुस्साहस के बारे में ही होगी. शायद इसीलिए वे अपने भाषणों में "यस, वी कैन" का नारा लगवाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे कोई नेता अपनी जनता में उम्मीद की किरण भर सकता है वे भरते हैं. लेकिन यह नारा अमेरिका के उस टूट चुके मनोबल को भी दर्शाता है जो उसे इस भ्रंस तक खींच लाया है. हो सकता है अमेरिका में उपभोग के सामानों की कोई कमी न हो और लोग "सुख" से जी रहे हों लेकिन सुख को अनुभव करनेवाली जो आत्मा होती है क्या वह अमेरिका के पास बची है? क्या अमेरिका और अमेरिका के फोटोकापी भारतीयों को इस बात का तनिक अंदाजा है कि बराक ओबामा कुछ नहीं कर सकते. चुनावी वादे और नारे आकर्षक व्यक्तित्व के जरिए आप उस प्रतिष्ठान तक जरूर पहुंच सकते हैं जिसे सत्ता कहते हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद आप सत्ता के हिस्से होते हैं. अमेरिकी नेशन स्टेट ओबामा क्या इराक से सेना हटाने की इजाजत देगी? क्या ओबामा में इतनी हिम्मत है कि वे इराकी तेल कुओं पर अमेरिकी कंपनियों के अवैध कब्जों को खत्म करवा सकें? क्या ओबामा दक्षिण मध्य एशियाई देशों की नीतियों में बदलाव ला सकते हैं. क्या वे इरान की नीतियों में बदलाव करेंगे? क्या वे अमेरिकी कंपनियों पर लगाम लगाने की कोशिश करेंगे जो पूरी दुनिया में घूम-घूम कर आम आदमी का खून चूसती हैं? क्या वे दूसरे देशों में नीतिगत हस्तक्षेप को बंद करवा देंगे? अगर ऐसा कुछ करते हैं तो फिर अमेरिका का वह रूतबा ही खत्म हो जाएगा जिस रूतबे के कारण भारत के टुंटपुजिया न्यूज चैनल भी लाईव रिपोर्टिंग करने अमेरिका जा पहुंचे हैं. क्या अमेरिका एक नेशन स्टेट के रूप में अपना रूतबा घटाकर बराक ओबामा को स्वीकार करने के लिए तैयार है?
शायद नहीं। कभी नहीं. बराक ओबामा जिस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति की शपथ लेंगे उस दिन वे अमेरिका के राष्ट्रपति होंगे और उन्हीं नीतियों को समर्थन करेंगे जिन नीतियों के कारण अमेरिका अमेरिका बना हुआ है. अगर सत्ता प्रतिष्ठान में पहुंचकर बदलाव संभव होता तो महात्मा गांधी भी देश के पहले प्रधानमंत्री बन जाते. महात्मा गांधी शायद इस बात को समझते थे कि गांधी सत्ता में जाने के बाद महात्मा नही रह पायेगा. सत्ता का अपना एक चरित्र होता है, जिसे बदला नहीं जा सकता. निश्चित रूप से बराक ओबामा अमेरिका और अमेरिका के फोटोकापी भारतीयों के लिए उम्मीद की एक किरण हैं लेकिन तभी तक जब तक वे व्हाईट हाउस में नहीं पहुंचते. जिस दिन वे ह्वाईट हाउस के अंदर होंगे उस िदन उनके निर्णय भले ही ज्यादा संतुलित हों लेकिन दुनिया के लिए अमेरिका के चेहरे को रत्तीमात्र भी नहीं बदल सकते. अगर उन्होंने ऐसा करने की कोशिश की तो अमेरिका ओबामा को भी बर्दाश्त नहीं करेगा. यही अमेरिकी नेशन स्टेट का चरित्र है और यही उसकी सफलता का राज भी. (मित्र विनोद पाठक द्वारा प्रेषित जिन्हें यह मेल उनके मित्र संजय तिवारी ने भेजा था )

Wednesday, September 24, 2008

राजनीति के मकड़जाल में फंसा आतंकवाद निरोधी कानून

आपको याद हो तो दिल्ली में हालिया बम धमाकों के बाद प्रधानमंत्री ने खुद खुफिया तंत्र की चूक स्वीकार की थी। साथ ही पोटा को लागू करने के भी संकेत दिए, लेकिन इस पर तंरत ही हाय तौबा शुरू हो गई। अगले ही दिन सूचना प्रसारण मंत्री ने इसका खंडन कर दिया कि सरकार पोटा को लागू करने जा रही है। लगे हाथ उन्होंने सख्त कानून की वकालत कर भूसे पर लीपने जैसा प्रयास भी कर दिया। अब आज कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने राजग सरकार के समय हुई आतंकवादी घटनाओं को गिनाते हुए पोटा को विफल कानून करार दिया। सख्त कानून का राग अलापाते हुए राहुल ने यह भी कह डाला कि आतंकवाद से मजबूत इच्छा शक्ति से लड़ा जा सकता है। हाय रे लोकतंत्र, क्या बातों से मजबूत इच्छा शक्ति पाई जा सकती है। सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के युवराज को क्या यह नहीं मालूम कि यह मजबूत इच्छा शक्ति किसी पड़ोसी देश से नहीं आएगी। सख्त कानून का निर्माण और उसे लागू करने की जिम्मेदारी उस केंद्र सरकार की ही है, जिसका प्रधानमंत्री उनकी पार्टी का है। साथ ही इसके लिए उस वोट बैंक की राजनीति को त्यागना होगा जो देश का बंटाधार कर रही है। यह सभी जानते हैं कि आतंकवादी किसी धर्म, जाति या संप्रदाय के नहीं होते। वे सिर्फ हत्यारे होते हैं। इसके बावजूद यह हमारे राजनेता ही हैं, जो अपनी बयानबाजियों से जांच एजेंसियों की मुश्किलें बढ़ा देते हैं। सिमी और इंडियन मुजाहिदीन की तुलना बजरंग दल और आरएसएस से करते हैं। जामिया नगर मुठभेड़ में आतंकियों की गिरफ्तारी के बाद वामपंथियों का बयान आता है कि पुलिस इस तरह से काम करें कि संप्रदाय विशेष खुद को अलग-थलग न महसूस करें। अब वामदलों से पूछा जाए कि इससे संप्रदाय विशेष के अलग पड़ने का क्या मतलब? जिसने जो बोया है वह तो काटेगा है। यदि आतंकवादी सबसे ज्यादा एक संप्रदाय के लोग ही निकल रहे हैं तो शिकंजा भी उसी संप्रदाय पर कसेगा। आप अपने बयानों से जहर क्यों घोल रहे हैं? देश हित से बड़ा कुछ नहीं होता। एक्स, वाई और जेड श्रेणी के मजबूत सुरक्षा कवच के सहारे अपने आप को सुरक्षित पा रहे नेतागण यह जान लें कि आज भले ही आतंकवादी गतिविधियों का शिकार निर्दोष लोग बन रहे हों, लेकिन ज्यादा समय तक वह खुद भी नहीं बच पाएंगे। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के हालात से इसे बखूबी समझा जा सकता है। आतंकवाद का भस्मासुर इन देशों में अब अपने रहनुमाओं को भी नही बख्श रहा है। कड़े सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद आतंकवादी यहां बड़े नेताओं को ?अपना निशाना बना रहे हैं। बेनजीर अपनी जान गंवा चुकी है। हाल ही में ली मेरिएट होटल में हुए धमाके में राष्टपति जरदारी, प्रधानमंत्री गिलानी और सेनाध्यक्ष कियानी बाल-बाल बचे हैं। इस लिए भारतीय राजनीतिक दल इससे सबक लें और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को वोटबैंक की राजनीति से नहीं जोड़े। आतंकवाद पर सख्त प्रहार के लिए कड़ा कानून बनाएं। उसका दुरुपयोग होता है तो उसमें संशोधन करें और यह प्रक्रिया तब तक जारी रखें जब तक वह फुलप्रूफ नहीं बन जाएं। सिर्फ दुरुपयोग का राग अलाप कर कानून को खारिज नहीं करें। जब मानवाधिकारों का सबसे बड़ा पैरोकार अमेरिका नाइन इलेवन के बाद अपने यहां बेहद सख्त कानून बना उसे लागू कर सकता है तो बार-बार धमाकों से दहलने के बाद हम क्यों नहीं? अगर यह कहा जाए कि आतंकवाद निरोधी कानून पोटा राजनीति का शिकार हुआ है, तो यह बिल्कुल भी गलत नहीं होगा। कमियां पोटा में नहीं थी, उसे लागू करने वालों में है। आतंकवाद के खिलाफ बना यह कानून, पोटा, राजनीति का ऐसा शिकार हुआ कि उसके मकड़जाल से बाहर नहीं आ सका और बेहतर परिणाम देने से पहले ही दम तोड़ गया। आतंकवाद से लड़ने के लिए बने हथियार पोटा को नेताओं ने अपने स्वार्थों को साधने के हथियार में तब्दील कर दिया।
------पवनेश कौशिक

Tuesday, September 23, 2008

विश्वास है जरूरी

ग्रेटर नोएडा में इटली की बहुराष्टीय कंपनी के सीईओ की हत्या की घटना की जितनी निंदा की जाए वह कम है। कर्मचारियों ने जो किया उसे किसी भी कीमत पर सही नहीं ठहराया जा सकता। इस घटना के दोषियों को सजा मिलनी ही चाहिए। आखिर सभ्य समाज में हिंसा की भी विवाद का हल नहीं है। सभी मसले बातचीत से सुलझाए जा सकते हैं। इस घटना से नियोक्ता और कर्मी के संवेदनशील और भावुक रिश्ते को गहरा आघात पहुंचा है। लेकिन यह भी बिल्कुल सही है कि ऐसी घटनाओं का कारण इस भावुक रिश्ते के बीच पैदा हुई अविश्वास की खाई है। यह खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। इसका कारण दोनों पक्षों की एक-दूसरे से उम्मीदें हैं। यह पूरी होने के बजाय इनका दायरा बढ़ता ही चला जा रहा है। कर्मचारी हर सूरत में अपने द्वारा किए जा रहे काम यानि आउटपुट को बेहतर ठहराता है तो प्रबंधन उसमें हर बार और सुधार की और ही इशारा करता है। मालिक काम से संतुष्ट नहीं है, तो कर्मचारी दाम से। एक-दूसरे की प्रशंसा और प्रेरणा से संस्थान को प्रगति के मार्ग पर आगे ले जाने के उपाय न के बराबर नजर आते हैं। नियोक्ता और कर्मियों में दोषारोपण का सिलसिला ही चलता रहता है। यह ठीक नहीं है। ऐसा कर दोनों ही घाटे में हैं और रहेंगे। अच्छा हो कि नियोक्ता कर्मियों की स्थितियों और उनकी समस्याओं को सुलझाने के मामले में संजीदगी बरते। साथ ही कर्मचारी भी वह काम कर दें, जिससे नियोक्ता को कोई शिकायत नहीं रहे। वरना ऐसी घटनाएं होंगी और दोनों इसका खामियाजा उठाते रहेंगे। आज ग्रेटर नोएडा में जघन्या घटना हुई है कल गुड़गांव के हीरो होंड़ा में कर्मियों की पिटाई की घटना की पुनरावृत्ति होगी।

Sunday, September 21, 2008

सांप्रदायिक चश्मा उतारें

हर मुठभेड़ की तरह दिल्ली के जामिया नगर में हुई आतंकी मुठभेड़ को भी समुदाय विशेष के तथाकथित बुद्धिजीवी और इस वर्ग के रहनुमा मजहबी रंग देने से नहीं चूके। मुठभेड़ में दो आतंकवादियों की मौत को पुलिस का प्रायोजित कार्यक्रम करार दे दिया गया। मुठभेड़ के कुछ समय बाद ही टीवी पर दिखाई पड़ने वाले ज्यादातर स्थानीय चेहरे पुलिस पर आरोप लगाते हुए सुनाई दिए। बेर्शमी के साथ ये लोग जहां मारे गए आतंकियों को निर्दोष बता रहे थे वहीं, सभी मुठभेड़ों को संप्रदाय विशेष को परेशान करने वाला करार दे रहे थे। मुठभेड़ में इंस्पेक्टर एमसी शर्माऔर एक हेड कांस्टेबल को गोली लगना भी इनके लिए पुलिस का प्रोपेगेंडा था। पुलिस द्वारा शर्मा को गंभीर रूप से घायल बताए जाने के बावजूद सभी मुठभेड़ पर ही उंगली उठा रहे थे। दिल्ली के साथ-साथ यूपी में तो और भी बुरा हाल था। आजमगढ़ के सरायमीर में लोगों ने पकड़े गए आतंकी सैफ को सही बताते हुए हंगामा काटा और मीडिया के साथ मारपीट की। हर चीज को सांप्रदायिक चश्मे से देखने से आदी हो चुके देश के इन सम्मानित लोगों को अब क्या कहा जाए ? पुलिस को कठघरे में खड़ा करने और आतंकियों की पैरवी करने से पहले ये लोग थोड़ा इंतजार कर लेते तो इनका क्या बिगड़ जाता। पुलिस को मिले सुबूत दूध का दूध और पानी का पानी तो कर ही देते। और ऐसा हुआ भी। मुठभेड़ स्थल से मिले सबूतों ने दोनों को आतंकी साबित कर ही दिया। पर पुलिस पर उंगली उठाने वाले लोगों के क्षुद्र रवैये से तो साफ है कि देश और देशवासियों की सुरक्षा से इनका कोई सरोकार नहीं है। कट्टरपंथियों के हाथ की कठपुतली बन चुके ये लोग भी आतंकियों की श्रेणी में ही खड़े हैं। देश में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। आतंकी जहां अपनी वारदातों से देश को नुकसान पहुंचा रहे हैं, वहीं ये उन्हें प्रश्रय और उनकी पैरोकारी कर उनका सहयोग कर रहे हैं। आखिर ये लोग यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं, कि यह देश उनका अपना है। इसके बाहर इनका कोई सहारा नहीं है। आतंकी गतिविधियों में लगो जो लोग हमर्दद नजर आते हैं वे वास्तव में अपने नहीं है। देश में आतंकवाद का शिकार बनने वाले लोग अपने होते हैं। ऐसे चंद लोगों के कारण ही पूरा संप्रदाय अविश्वसनीय हो गया है। हांलाकि दिल्ली पुलिस के खुलासे और इंस्पेक्टर की शहादत के बाद अब इन सभी लोगों की जुबान पर ताले लगे हुए हैं। लेकिन इससे क्या। अविश्वास की खाई तो और चौड़ी हो ही चुकी है। मैं तो यह सोच कर सिहर उठता हूं, कि यदि इस आपरेशन बटला हाउस में पुलिस को कोई क्षति नहीं उठानी पड़ती तो तब क्या होता? एक बार फिर वोट बैंक की राजनीति शुरू हो जाती। अभी तक खामोश बने हुए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग और राजनेता आतंकी अबू बशर के घर की भांति फिर सैफ के घर पर जुटने शुरू हो जाते। सरकार और प्रशासन को कोसकर आतंकवाद को जड़ों को सींचते। देश में दिनोदिन बढ़ रहे आतंकवाद के खतरे के मद्देनजर अब चेत जाने की जरूरत हैं। यह हम सबका देश है। आतंकी घटना के वक्त घटनास्थल पर नहीं होने से हम भले ही बच जाए, लेकिन इसका असर हम पर जरूर पड़ता है। वह हमला घायल करता है। इसलिए संकीर्ण नजरिया और सिर्फ अपना हित साधने की मानसिकता छोड़नी होगी। आतंकी किसी कौम या मजहब के नहीं हैं, यह छोटी से बात जो अभी तक चंद लोग समझ कर भी नहीं समझ रहे, उन्हें समझनी ही होगी। वरना केवल कुछ साल बाद ही इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की कतार में भारत भी होगा। अभी हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार पिछले कुछ सालों में विश्व में इराक के बाद सबसे ज्यादा धमाके भारत में हुए हैं। यही नहीं इनमें इराक के बाद सबसे ज्यादा मौतें भी भारत में ही हुई हैं। इसलिए नजरिया बदलें और आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दें।

Thursday, August 14, 2008

दूरसंचार कंपनियों की मनमरजी के सामने बेबब ग्राहक

दूरसंचार कंपनियों की मनमरजी के सामने बेचारा ग्राहक
नियम-कानूनों के तमाम झालमेल के बावजूद भारत में उपभोक्ता या ग्राहक अभी भी निरीह और बेचारा ही है। देश में बड़ी कंपनियों के मायाजाल के सामने सरकार नतमस्तक है तो कानून बौने। मुझे भी अपने टाटा मोबाइल फोन के कनेक्शन के जरिये अपने आम उपभोक्ता होने की बेचारगी का बेहद कटु अनुभव हुआ। टाटा और बाटा के दो नाम मेरे जेहन में बचपन से ही आ गए थे। छात्र था तो दैनिक उपयोग की वस्तुओं के साथ-साथ किताबों में जमशेद जी टाटा से लेकर रतन टाटा की काबिलयत और उनके कारोबारी तिलिस्म का अध्ययन किया। शायद यही कारण था, कि दिल्ली आने के बाद मोबाइल कनेक्शन चुनने की बारी आई तो मैने टाटा पर विश्वास किया। टाटा इंडीकाम का क्नेक्शन ९२१२५६७३२७ लिया। लेकिन समय पर बिल चुकाने जैसे एक अच्छे ग्राहक के सारे दायित्व निभाने के बावजूद टाटा फोन से लगातार टीस ही मिली। पहले कई वाकयों के बाद इस बार तो हद ही हो गई। मेरा फोन पिछले लगभग पांच दिनों से बंद पड़ा है। किस्सा कुछ यूं हैं।ग्यारह अगस्त २००८ को सुबह आठ बजे मेरा सिम ब्लाक हो गया। मैं उत्तर प्रदेश में अपने घर पर था। वहां से दिल्ली लौटा तो सीधे नोएडा, सेक्टर १२ पहुंचा। टाटा आउटलेट पर बताया गया कि सिम ब्लाक है और नया सिम खरीदना पड़ेगा। मंगलवार को मैं दिल्ली में लक्ष्मीनगर स्थित टाटा इंडीकाम के आफिस आदित्य इंटरनेशनल, पांच, भारती आरिटस्ट कालोनी, मैन विकास मारग, पहुंचा। यहां से मैने १०० रुपये देकर नया सिम (सीरियल नंबर-१५२२००३२०२०२२४९) खरीदा। कंप्लेंट नंबर १३२४७८६६५ के साथ दो घंटे में एक्टीवेशन का आश्वासन मिला। लेकिन शाम को चार बजे फोन आया कि सिम खराब है। नया सिम लेना पड़ेगा। उस दिन बाहर था। फोन बंद होने की जहमत के बीच गुरुवार को दिल्ली लौटा और फिर आदित्य इंटरनेशनल पहुंचा। उन्होंने नया सिम (सीरियल नंबर-१५२२००३२०२०३६५०) मुझे दिया। कंप्लेंट नंबर मिला- १३२७७७५९३। यह सिम भी खराब निकला। और फोन बंद का बंद ही रहा। बात इतनी सीधी भी नहीं है। आउटलेट वरकरों का जो व्यवहार था उसके तो कहने ही क्या। ग्राहक होने का अफसोस मुझे यहीं पर हुआ? मुझे कहा गया कि हमारी कोई गारंटी नहीं यदि सिम खराब होता है। फोन चालू हो या न हो आप अपने रिस्क पर सिम लें। पैसा भी वापस नहीं मिलेगा। चाहें तो आप अपना फोन बंद करा दें। इसके बावजूद मैने सिम खरीदा लेकिन फोन चालू नहीं हुआ। तमाम बक-झक के बाद पैसा वापस लेकर आया। बारिश में भीगते हुए देर शाम साढ़े छह बजे नोएडा में सेक्टर ११ अट्टा पर स्थित कंपनी के वेबवल्ड$ पहुंचा तो यहां के हाल और भी खराब मिले। कांउटर नंबर दो पर बैठे करमचारी ने साफ कह दिया कि पोस्टपेड के सिम उनके यहां खत्म हैं। आपकी कोई मदद नहीं हो सकती। अब पंद्रह अगस्त की सरकारी छुट्टी और फोन चालू होगा तो १६ अगस्त को ही नया सिम खरीदे जाने पर संभव होगा। लेकिन यहां सवाल यह है कि इतनी जलालत के बाद भी क्या मुझे टाटा का उपभोक्ता बने रहना चाहिए। अंतरआत्मा तो यही कह रही है कि छोड़ो तमाम आपरेटर देश में हैं किसी और की सेवाएं ली जाए। मैं अंतरआत्म के साथ ही जा रहा हूं। अब १६ अगस्त को टाटा का फोन बंद करा दूंगा। लेकिन क्या मुझे यहीं पर बात खत्म कर देनी चाहिए। मन तो यही कह रहा है कि उपभोक्ता फोरम को भी आजमा लेना चाहिए। यही करुंगा भी। ग्राहक के प्रति रुखी हुई कंपनी को सबक तो सिखाया ही जाना चाहिए। फोन के बंद रहने पर क्या-क्या नुकसान उठाने पड़ते हैं, यह फोन रखने हर उपभोक्ता समझ सकता है। (भाषाई दोष फोंट के कारण हैं)
पवनेश

Tuesday, July 15, 2008

अंधा बांटे रेवड़ी अपनों-अपनों को दे

जनप्रतिनिधि हैं तो मौज काटिये। कानून बनाने की ताकत आपके हाथ में जो है। आपका छोटा सा कष्ट भी बहुत बड़ा है और जनता का बड़ा कष्ट भी बहुत छोटा। यकीन नहीं होता तो हरियाणा का ताजा उदाहरण आपके सामने है। सरकार राज्य के तमाम विधायकों-सांसदों को गुड़गांव और पंचकूला जैसे पाश इलाकों में रेवड़ी की तरह प्लाट बांटने जा रही है। सोमवार को मंत्रिमंडल की बैठक में कांग्रेस की भूपेंद्र हुड्डा सरकार ने इसे मंजूरी दे दी है। सरकार का दिल जनप्रतिनिधियों की उस `मासूम` सी गुहार पर पसीजा है जिसमें उन्होंने कहा है कि चंडीगढ़ में विधानसभा सत्र में शिरकत करने और अन्य काम के लिए बार-बार आने पर आवास की परेशानी का सामना करना पड़ता है। अब राज्य के सारे विधायक सांसद एकजुट होकर जो बात कहे वह सरकार नहीं माने ऐसा हो ही नहीं सकता। आखिर सरकार है कौन? यही विधायक-सांसद ही तो हैं।दरअसल यह अपनों को उपकृत करने की यह शानदार कवायद है। वरना जनप्रतिनिधियों के आवास की समस्या हल करने के लिए सरकार चंडीगढ़ में जनप्रतिनिधयों के लिए सरकारी आवास की व्यवस्था कराती। ठीक उत्तर प्रदेश की तरह। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ स्थित हजरतगंज में बने दारुलशफा में विधायकों के आवास की व्यवस्था है। दारुलशफा विधायक हास्टल है जिसमें निरवाचन के तुरंत बाद सरकार विधायकों को फ्लैट आवंटित कर देती है। विधानसभा सत्र और राजधानी आने के तमाम मौकों पर विधायक यहीं ठहरते हैं। अब जरा प्लाट बांटने जा रही हरियाणा सरकार से कोई पूछे कि जिन विधायकों और सांसदों को सरकार प्लाट आवंटित करेगी उनमें से कितने दुबारा चुने जाएंगे? फिर जो नए जनप्रतिनिधि चुनकर आएंगे अगले सत्र में उन्हें भी आवास की समस्या होगी। उनके लिए फिर प्लाट आवंटित करने होंगे। अगली बार फिर यही व्यवस्था दोहरानी पड़ेगी। हरियाणा सरकार के इस कदम से तो एक ही बात झलकती है कि यह गुड़गांव और पंचकूला जहां जमीन के दाम आसमान को छू रहे हैं वहां की महंगी जमीन के बड़े हिस्से पर जनप्रतिनिधियों को काबिज कराने का एक `कानूनी` प्रयास है। यह तो वही हुआ `अंधा बांटे रेवड़ी अपनो-अपनो को दे`।---पवनेश कौशिक

Wednesday, June 18, 2008

नौ दिन चले अढ़ाई कोस

लीजिए, आरक्षण को राजस्थान सरकार और गुर्जरों में सुलह हो गई। अलग से पांच फीसदी कोटे पर गुर्जर मान गए। समझौते के फारमूले को देखें तो गुर्जर आंदोलन की स्थिति नौ दिन चले अढ़ाई कोस की ही रही। क्योंकि २३ मई को आंदोलन शुरू होने के तीन दिन बाद ही राज्य सरकार ने केंद्र को गैर अधिसूचित क्षेत्र में छह फीसदी आरक्षण की सिफारिशी चिट्ठी केंद्र को भेज दी थी। लेकिन गुर्जर अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग पर अड़े रहे। नतीजा चार हफ्ते तक आंदोलन खिंचा। रेल संचालन ठप होने और तोड़फोड़ के अलावा माल ढुलाई बंद होने से रेलवे के साथ-साथ केंद्र और सरकार को अरबों की चपत लगी। आम लोगों ने परेशानियां भुगती अलग से। आंदोलन खत्म हो गया, लेकिन पीछे कई बड़े सवाल छोड़ गया है। क्या अपनी मांगों को मनवाने के लिए बंद और इस दौरान राष्ट्रीय संपति को नुकसान पहुंचाना सही है ? सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था ठप कर लाखों लोगों को परेशानी में डालना उचित कहा जाएगा ? क्या शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत से कोई हल नहीं निकल सकता? यदि अपनी अंतरआत्मा की बात सुने तो शायद सभी लोग (आंदोलनकारी भी) बंद और तोड़फोड़ का समर्थन नहीं करेंगे। बंद आम लोगों के लिए तकलीफदेय ही नहीं होता, यह राष्ट्र के विकास को भी बाधित करता है। रोज-रोज के बंद-तोड़फोड़ से कैसे निपटा जाए इसके बारे में नीति-नियंताओं को सोचना चाहिए। गांधीगिरी का कमाल सभी देख चुके हैं। अहिंसा के बल पर गांधी जी अंग्रेजों ( इनके बारे में कहा जाता था कि अंग्रेजी राज में सूरज कभी नहीं डूबता) को देश से भगाने में कामयाब रहे, फिर अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए इसे आजमाने में हर्ज क्या है। इस पर अमल में कैसी हिचक। कम से कम एक बार तो इसे आजमा सकते ही हैं? -

Monday, June 16, 2008

लग्जरी कारों की तेल पर सबिसडी बंद होनी ही चाहिए

बिल्कुल सही बात कही है योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने। महंगी कारों के शौकीनों को तेल पर सबिसडी नहीं मिलनी चाहिए। आखिर मिले भी क्यों? सस्ता पेट्रोल और डीजल आम आदमी के लिए है। ताकि गरीब किसान खेती के लिए पंपिंग सेट और ट्रेक्टर चला सके। सार्वजनिक परिवहन सस्ता रहे ताकि आम आदमी आसानी से सफर कर सके। साथ ही माल भाड़ा सस्ता रहे और जरुरत की चीजों के मूल्य काबू में रहे। सरकार ने १५०० सीसी और इससे ऊपर की कारों जेसे एसयूवी-एमयूवी पर १५-२० हजार टैक्स लगाकर इसकी शुरुआत कर दी है। विदेशों में आयल गजलर्स टैक्स के नाम से यह पहले से ही लगा है। अब भारत में भी यह लागू होगा। लेकिन इन कारों को पेट्रोल-डीजल का मामला अभी बाकी है। सवाल उठ रहा है कि अमीर लोगों को महंगा तेल कैसे बेचा जा सकता है। एक ही पेट्रोल पंप पर अलग-अलग दाम से तेल बिक्री कैसे होगी? फिर ज्यादातर अमीरों के अपने पेट्रोल पंप हैं, वे वहीं से तेल ले लेंगे। एक हल है। आयल गजलर्स के साथ-साथ भारी कारों पर साल भर में खर्च होने वाले तेल की अनुमानित मात्रा तय करते हुए सालाना कर लगा दिया जाए।उसकी खरीद-पुनरखरीद पर भी इसे लागू किया जाए। इसके अलावा पेट्रो पदार्थों पर टैक्स भी कम किया जाए। अभी केंद्रीय और राज्य सरकार का टैक्स ही तेल का तेल निकाल रहा है। सरकार दोहरा गेम खेल रही है। कच्चे तेल के दाम बढ़ने का तो रोना रोती है, लेकिन पेट्रोल डीजल पर लगाए गए बेतहाशा टैक्स का जिक्र नहीं करती। अमेरिका समेत कई पश्चिमी देशों में तेल के दाम इसी लिए कम हैं, क्योंकि सरकारों ने पेट्रो पदार्थों को दूध वाली गाय नहीं बना रखा। यह सही है कि विकास कार्यों के लिए सरकार को राजस्व जुटाना होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप पेट्रो पदार्थों पर ही सारा ध्यान लगा दें। सिगरेट-शराब, पान मसाला जैसी कई वस्तुएं हैं, जिन पर भारी टैक्स लगाया जा सकता है। इसका यह फायदा होगा कि जहां भारी राजस्व मिलेगा, वहीं महंगे होने के कारण पीने-खाने वाले लोग हतोत्साहित भी होंगे। एक बात यह भी समझ में नहीं आती कि सरकार एक ओर तो सिगरेट और शराब को प्रमोट करती है, वहीं इनके नुकसान बताने वाले बड़े-बड़े विज्ञापनों पर पैसा खर्च करती है। इन विज्ञापनों को बंद कर काफी पैसा बचाया जा सकता है।

Wednesday, May 28, 2008

बातोंबातोंमें--- मेरी-तेरी,इसकी-उसकी यानी सबकी बात

बातें हम करते जरूर हैं पर अकसर वो नहीं कह पाते जो कहना चाहते हैं. सामने वाला क्या सोचेगा, यह ठीक नहीं जैसे कई संकोच इस पर भारी भी पडते हैं.फिर हम जब कह रहे हों सामने वाला उसे सुनना चाहे यह भी जरूरी नहीं. अपनी बातों को शब्दों में पिरोकर उन्हें कागज या अब यूं कहें ब्लाग पर परोस देने में न कोई संकोच आडे आता है और न कोई बंधन.और हां बात कब करनी है और कब नहीं यह भी आप पर ही निर्भर करता हैं. तो जनाब अबसे यहां दिल खोलकर बातें होंगी. जानकारियों और विचार की खट्टी-मीठी और कडवी चाशनी में लिपटी ये बतकही  कई बार बहुतकुछ सोचने के लिए भी मजबूर करेगी

                                             एक और वज्रपात, नीरज भैया को  लील गया कोरोना  दिल के अंदर कुछ टूट सा गया है, ऐसा कुछ, जिसका जुड़...