Sunday, August 6, 2017

फिल्मसमीक्षा- हिंदी मीडियमः बच्चों का एडमिशन बच्चों का खेल नहीं


फिल्म हिंदी मीडियम कहानी है ऐसे मां-बाप(राज बत्रा और मीता) की जो अपनी इकलौती बेटी को राजधानी  के टॉप स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए हर जतन करते हैं।  पहले अमीरी के दम पर दाखिले की जुगत लगाते हैं जैसे पुश्तैनी घर छोड़कर महंगी कालोनी को आशियाना बनाते हैं। कंसलटेंट की मदद से खुद को अभिभावक के इंटरव्यू के लिए तैयार करते हैं। डोनेशन और सिफारिश का सहारा लेते हैं। इसमें असफल रहने के बाद एक दलाल की मदद से गरीब बनकर आरटीई कोटे के तहत सीट पाने में जुट जाते हैं। इस दौरान एक और गरीब की मदद से अंततः नामी स्कूल की सीट पाने में सफल हो जाते हैं। दाखिले की दौड़ में लगाई जाने वाली ये तिकड़में ही फिल्म में कामेडी और गंभीरता का कारण बनती हैं।
सधा हुआ मैसेजः फिल्म देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी को लेकर देश में बने दोहरे रवैये पर कड़ा प्रहार करती है। यह बताती है कि कैसे मां-बाप को यह डर सताता है कि बच्चा हिंदी माध्यम से पढ़ाई करेगा तो अंग्रेजी नहीं सीख पाएगा। अगर कोई उससे अंग्रेजी में बात करेगा तो वह खुद को हीन समझेगा और उसकी रूह कांप उठेगी। फिल्म की हिरोइन का यह संवाद ...इस देश में अंग्रेजी जुबान नहीं, क्लास (वर्ग) है राज क्लास.. इस क्लास में घुसने के लिए एक अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. अंग्रेजी की अहमियत को दरसाता है। फिल्म के कुछ दृश्य जैसे स्कूलों में स्वीमिंग, घुडसवारी सिखाने जैसे इंतजाम जो उनके फाइव स्टार बन जाने का खुलासा करते हुए पैसे के बोलबाले पर चोट करते हैं तो स्कूलों के बाहर लगी लंबी लाइन जैसे दृश्य मां-बाप की बेबसी को बयां करते हैं। आरटीई के तहत गरीब कोटे की सीटों का महंगे स्कूल कैसे बंदरबाट करते हैं इस पर भी चोट की गई है।
नएपन का अभावः हिंदी मीडियम भले ही शिक्षा-व्यवस्था के काले चेहेरे और आरटीई के तहत दाखिले की व्यवस्था पर चोट करती हो,लेकिन फिल्म में नएपन का अभाव है। फिल्म में दिखाई गई ऐसी कोई बात नहीं है जो आप पहले  से न जानते हों। ऐसा लगता है कि निर्देशक साकेत चौधरी किसी जल्दी में थे, इसीलिए उन्होंने सिर्फ मुद्दों को छुआभर है। बिना पर्याप्त  शोध के एक गंभीर विषय को फिल्म में गुथ डाला। अगर ठीक से पड़ताल की गई होती तो उनसेस स्कूलों की राजनीति, नेताओं-नौकरशाहों का गठजोड़ जैसे तथ्य नहीं छुप पाते।
कलाकारों ने संभालाः अभिनेता इरफान खान के भावपूर्ण अभिनय और संवाद अदायगी के सभी कायल हैं। अन्य  फिल्मों की तरह इसमें भी उन्होंने अपनी इन खूबियों का बखूबी लोहा मनवाया है। पाकिस्तानी अभिनेत्री सबा कमर के साथ उनकी जोड़ी जमी है। इरफान ने चांदनी चौक के पैसे वाले व्यापारी राज बत्रा और सबा ने उनकी नकचढ़ी लेकिन बच्ची के लिए परेशान मां मीता का रोल निभाया है। इन दोनों के बीच अभिनेता दीपक डोबरियाल ने श्याम के रूप में अपनी दमदार उपस्थित दर्ज कराई है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि श्याम की एंट्री के बाद ही फिल्म उड़ान भरती दिखती है। कंसलटेंट के रूप में तिलोत्तमा शोम ने भी प्रभावित किया है। हालांकि फिल्म में नेहा धूपिया, अमृता सिंह और संजय सूरी सिर्फ खानापूर्ति ही करते नजर आए हैं।

दूसरी फिल्मों से अलगः देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर अब तक कई फिल्मे बन चुकी हैं। इनमें राजू हिरानी की थ्री इडियट और तारें जमीं पर का नाम सबसे पहले आता है। दोनों फिल्में जिस तरह से हंसी-हंसी में पढ़ाई जैसे गंभीर विषय पर बड़ा सबक देती हैं, वैसा हिंदी मीडियम में नहीं है।इसके अलावा फिल्म इंग्लिश-विंग्लिश की तरह अंग्रेजी नहीं आने की कसक को भी मां-बाप में पूरी तरह नहीं उभार पाई। इसके बावजूद निर्देशक साकेत चौधरी की  कोशिश को नकारा नहीं जा सकता। खासकर गरीबों के कोटे की सीट को अमीरों द्वारा खा जाने की प्रवृत्ति पर प्रहार करने में वह कामयाब रहे हैं। 

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