Sunday, March 12, 2017

इरोम चानू शर्मिला : 16 साल के संघर्ष का यह सिला

इरोम क्या तुम्हे मणिपुर ने खारिज कर दिया है? यहां के लोगों को अफस्पा से कोई परेशानी नहीं है, तुम्हारा संघर्ष झूठा है? जिस कानून को हटाने के लिए तुमने जीवन के 16 साल दिए वे बेमतलब थे?
ये कुछ सवाल हैं, जो मणिपुर विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से मेरे मन में उठने शुरू हुए। इसका सबसे बड़ा कारण है इरोम की पार्टी पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस (पीआरजेए) की करारी हार। पीआरजेए ने तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और तीनों पर जमानत ही जब्त नहीं हुई, दो सीटों पर तो प्रत्याशियों को नोटा से भी कम वोट मिले। तीन बार से मुख्यमंत्री ओ इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरी इरोम खुद थोबल सीट पर कुल 90 वोट पा सकीं। जबकि यहां नोटा का बटन दबाने वाले मतदाता 143 थे। पीआरजेए के टिकट पर लड़ने वाली नजमा बीबी को वाबगई सीट पर मात्र 33 वोट मिले। प्रदेश की इस पहली मुस्लिम महिला प्रत्याशी से ज्यादा यहां नोटा (117 वोट) चला। तीसरे प्रत्याशी इ. लेचोमबाम को थेंगमीबंद सीट पर सिर्फ 573 वोट मिले।
जिस प्रदेश में 86फीसदी वोट पड़ें हों और उसमें भी महिलाओं का मत प्रतिशत सबसे ज्यादा हो, वहां पीआरजेए को मिले मामूली मत हिला देने वाले हैं।
 जनता जनार्दन के ‘आयरन लेडी’ के साथ इस सलूक की कुछ-कुछ भनक 9 नवंबर 2016 को अनशन खत्म करने के बाद ही मिलनी शुरू हो गई थी। ज्यादातर समर्थकों आंदोलन खत्म करने का फैसला नहीं भाया था।. अनशन तोड़कर जब वह घर की तरफ जा रही थी तो मुहल्ले वालों ने उन्हें संदेश भेजकर वहां आने से रोक दिया था। उन्हें उसी अस्पताल में रुकने को मजबूर होना पड़ जिसमें वह अनशन के दौरान भर्ती रही। यही नहीं ‘सेव शर्मिला ग्रुप’ ने भी उनसे नाता तोड़ लिया। समर्थकों ने आंदोलन खत्म करने को धोखा करार दिया था। फिर भी इरोम 16 सालों की अपनी तपस्या को नया आयाम देने के लिए राजनीतिक जीवन में उतरने के अपने इरादों पर अडिग रही। उनके इस जज्बे को देश-दुनिया में सराहा भी गया पर अब नतीजे कह रहे हैं कि सिर्फ बलिदान से चुनाव नहीं जीते जाते।
इरोम हारीं तो हैं, लेकिन उनकी इस पराजय ने एक मिथक ,राजनीति में जब तक अच्छे लोग नहीं आएंगे इसे बदला नहीं जा सकता, को भी तोड़ दिया है। साफ है कि भले ही लोग नेताओं को लेकर नकारात्मक छवि रखें पर वे इसे बदलने देना भी नहीं चाहते। आखिर अफस्पा के खिलाफ महज 28 साल की उम्र से भूख हड़ताल शुरू करने के बाद अस्पताल में बंदी के रूप में जीवन गुजारने वाली इरोम को इसके बाद भी क्या अपनी अच्छाई का सबूत देना बाकी था? याद रहे14 मार्च को 45 साल की हो रहीं इरोम ने अपनी अब तक की जिंदगी का लगभग एक तिहाई समय बंदी के रूप में गुजारा है।

आगे का रास्ता तंग
प्रचार के दौरान विधानसभा चुनाव को केवल अभ्यास बताते हुए अगली बार पूरे दमखम से मैदान में उतरने का भरोसा देने वाली इरोम उम्मीद से उलट नतीजे मिलने से हताश हैं।  राजनीति को अलविदा भी कह सकती हैं। नतीजों के बाद इरोम ने कहा कि वह चुनाव परिणाम से खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही हैं, लेकिन इसमें लोगों का कोई दोष नहीं है. वोट के अधिकार पर पैसों की ताकत भारी पड़ी है। राजनीति को छोड़ सकती हूं, लेकिन अफस्पा के खिलाफ दूसरे मंचों से मेरी लड़ाई जारी रहेगी। राजनीति को हथियार बना संघर्ष को मुकाम तक पहुंचाने की दम तोड़ती यह कोशिश शुभ संकेत नहीं है।



यूं हुई थी अनशन की शुरुआत
इरोम चानू शर्मिला को वर्ष 2000 में इंफाल में हुई एक घटना ने झकझोर दिया था। दरअसल यहां बस स्टाप के पास मणिपुर राइफल्स के काफिले पर हमला किया गया था। इसके बाद 2 नवंबर 2000 को मणिपुर राइफल्स के जवानों ने यहां 10 यात्रियों का कथित एनकाउंटर किया था। मरने वाले यात्रियों में 1998 की राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार विजेता सीनम चंद्रमणि भी शामिल थी.  इसके बाद इरोम ने मणिपुर से अफस्पा हटाने की मांग को लेकर अनशन शुरू कर दिया था। तीन दिन बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया।




इंफाल में चुनाव नतीजों के बाद निराश बैठीं इरोम चानू शर्मिला


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