Saturday, November 8, 2008

भारतीय मीडिया का ओबामा पर न्योछावर होना

नस्लवाद के दंश से जूझ रहे अमेरिका में बराक हुसैन ओबामा का अश्वेत राष्ट्रपति के रुप में चुना जाना बेशक एक बेहद बड़ी घटना है। इस कदम के जरिये दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका ने एक नया पड़ाव तय किया है। लेकिन ओबामा के निवार्चन को लेकर भारतीय मीडिया ने जो उत्साह दिखाया वह हैरान करने वाला है। क्या समाचार पत्र और क्या न्यूज चैनल कवरेज करते हुए सभी इस कदर बौराए कि उन्हें होश ही नहीं रहा कि क्या लिखे और क्या दिखाएं। समाचार पत्र ओबामा विशेषांक में तब्दील हो गए तो न्यूज चैनल ओबामा पुराण के वाचन में तल्लीन। खबरों के जरिये आम आदमी की दुनिया बदल देने का दावा करने वाले समाचार चैनल चार नवंबर को दिन भर ओबामा के स्तुतिगान में जुटे रहे तो पांच नवंबर को अखबार ओबामामय थे। इस फेर में अन्य जरूरी खबरें छूटी तो इसका किसी को कोई अफसोस दिखाई नहीं दिया। ओबामा की इतनी कवरेज का कारण कोई तो समझाओ। ठीक है, अमेरिका विश्व का दादा है और उसके यहां मची हलचल का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है। अमेरिका में फिलहाल छाई आर्थिक मंदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के डावांडोल होने के बाद भारत-चीन समेत दुनिया के तमाम देशों की अर्थव्यवस्था कंपित हो उठी है। ओबामा का राष्ट्रपति चुना जाना भी बड़ी घटना है क्योंकि देर-सबेर सभी देशों पर इसका असर पड़ेगा। लेकिन यह विशुद्धरूप से राजनीतिक और आर्थिक होगा। इस लिहाज से इसका विश्लेष्ण होना चाहिये था। पर निवार्चन के तुरंत बाद यह चीर-फाड़ उचित नहीं कही जा सकती, क्योंकि ओबामा २० जनवरी,२००९ को देश की बागडोर संभालेंगे। अभी तक उन्होंने जो भी कहा वह चुनाव प्रचार के दौरान दिए गए भाषण थे। शासन में आने के बाद ये कितने सही साबित होंगे यह वक्त बताएगा। उनकी नीतियों और रीतियों का सही मायने में पता भी तभी चलेगा। फिर यह कौन नहीं जानता कि अमेरिका हर मायने में अमेरिका है। वहां चाहे ओबामा के पूर्वगामी डैमोक्रेट बिल क्लिंटन का शासन हो यहा रिपब्लिकन जार्ज बुश का। हर हाल में अमेरिकी स्वार्थ और हित ही सर्वोपरि हैं। भारतीय मीडिया में ओबामा के छाए रहने के बाद जो टीस उभरी वह थी अपने यहां होने वाले चुनाव की कवरैज। भारतीय मीडिया ने जितना ओबामा के बारे में दिखाया-सुनाया उसके बाद हम ओबामा के तो रोम-रोम के बारे में जान गए, लेकिन अपने नेताओं को लेकर भी क्या हमारी यही स्थिति है????? पहले सिख प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के बारे में भी क्या भारतीय मीडिया ने हमे ऐसा ही मौका मुहैया कराया था??? शायद नहीं। जबकि भारत में चैनल देखने और अखबार पढ़ने वाले करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनका अमेरिका के बारे में ज्ञान बेहद सामान्य है। उनका सरोकार अपना भारत है सात समुंदर पार का अमेरिका नहीं। इसलिए ओबामा के बारे में इतनी उल्टी करने से पहले भारतीय मीडिया को इन करोड़ों लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए था।

यू कान्ट, बराक हुसैन ओबामा !

गोलमेज सम्मेलन के लिए महात्मा गांधी लंदन गये तो लौटते हुए फ्रांस भी गये थे. उनके सामने प्रस्ताव आया कि आपको अमेरिका भी जाना चाहिए. बार-बार दबाव डालने के बावजूद महात्मा ने अमेरिका जाने से मना कर दिया. जब उनके पूछा गया कि आप मना क्यों कर रहे हैं तो उन्होंने कहा था अभी वह वक्त नहीं आया है कि मैं अमेरिका जाऊं. महात्मा गांधी भले ही अमेरिका न गये हों लेकिन बराक ओबामा के िनजी दफ्तर में महात्मा गांधी की फोटो लगी हुई है. आर्थिक और सामाजिक भ्रंस के कगार पर खड़े अमेरिका में ओबामा का राष्ट्रपति बनते ही क्या वह वक्त आ गया है कि महात्मा गांधी जैसी चेतना कह सके कि हां, अब वह वक्त आ गया है जब मुझे अमेरिका जाना चाहिए?नहीं, वक्त तो शायद अभी भी नहीं आया है. पिछले ४८ घण्टों से भारतीय मीडिया ने जिस तरह का रूख अख्तियार किया है उससे दो बातें साफ हो रही हैं. एक, अमेरिका ने लंबे समय से भारत में जो बौद्धिक पूंजी निवेश किया था उसका परिणाम सामने आ रहा है और दो, भारत में एक बड़ा अमरीकी फोटोकापी वर्ग खड़ा हो गया है जो हर लिहाज से अमेरिका को भारत से बेहतर मानता है. बात जब लीडरशिप की हो तब भी. दिल्ली के अमेरिकन सेन्टर और दूतावास में वहां के स्थानीय निवासियों के लिए कुछ सुविधाएं उपलब्ध करवायी गयी हैं कि अमेरिकी इस ऐतिहासिक क्षण में अपने देश के साथ जुड़ सकें. लेकिन अगर आप वहां जाएं तो पायेंगे कि वहां अमेरिकियों से ज्यादा अमेरिकी मानसिकता के भारतीयों का जमावड़ा है. वे अोबामा में "होप" की तलाश कर रहे हैं. "यस, वी कैन" की शब्दावली ऐसे रट रहे हैं मानों अमेरिका नहीं भारत में राष्ट्रपति का चुनाव पूरा हुआ है. माफ करिए, ये इतनी बड़ी समझ वाले लोग नहीं है जो विदेश नीति के जानकार हैं और इस ऐतिहासिक मौके पर भारत की भविष्य की रणनीतिक को देखते हुए योजनाएं बना रहे हैं. ये अस्तित्वहीन लोग हैं. ऐसे चमगादड़ जो मौका मिलते ही किसी भी डाल से चिपक जाते हैं.
अमेरिका ने लंबे समय से जो बौद्धिक पूंजीनिवेश किया था ये जमात उसी की पैदाईश है. मीडिया में भी वैसे ही लोगों की भरमार है जो अमेरिका को अपना स्वर्ग मानते हैं, इसलिए भांति-भांति से अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव जैसी एक खबर को २४ घण्टे का अभियान बना दिया गया है. महात्मा गांधी अगर इस मानस के होते तो वे भी आज के नव-धनाढ्यों के स्वर्ग अमेरिका जाते और दलील देते कि क्योंकि आज हमारे देश में अमेरिका प्रेमियों की संख्या बहुत बढ़ गयी है इसलिए कूटनीतिक स्तर पर अमेरिका जाने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया था. शायद इसीलिए वो महात्मा गांधी थे क्योंकि वे अपनी जमीन पर खड़ा होना जानते थे. और शायद इसीलिए ओबामा के निजी कार्यालय में महात्मा गांधी की तस्वीर भी लगी हुई है. आज जो लोग अमेरिकी चुनाव को इस तर्क के साथ भारतीय जनमानस तक पहुंचा रहे हैं कि अमेरिका दुनिया का शीर्षस्थ देश है और भारत उभरता अमीर तो उसे अमीरी का यह प्रदर्शन करना ही चाहिए, वे बौद्धिक रूप से लकवाग्रस्त हैं. यह जानते हुए कि अमेरिका भ्रंस पर आ खड़ा हुआ है और उस भ्रंस में धंसने से पहले अमेरिका ओबामा के रूप में अंतिम सांस ले रहा है. यह अमेरिका तो जाएगा. अगर ओबामा सफल होते हैं तो अमेरिका वह अमेरिका नहीं रह जाएगा जो अब तक था. फिर भी हमारी मीडिया जिस अमेरिका के प्रभाव में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव को विश्लेषण कर रही है वह वही अमेरिका है जिसके दुष्प्रभाव में खुद अमेरिका और पूरी दुनिया है.
भारत में आज बीपीओ और काल सेंटरों के जरिए कोई १५००० करोड़ का कारोबार हो रहा है. इसमें बड़ा हिस्सा अमेरिका का है. यही हाल साफ्टवेयर उद्योग का है. इन दो क्षेत्रों के अलावा एक तीसरा क्षेत्र भी है जहां अमेिरका सबसे बड़ा आयातक है. वह है आध्यात्मिक आयात. ओबामा का उदय पिछले सौ-सवा सौ साल में अमेरिका गये आध्यात्मिक उत्पादों का परिणाम है. ओबामा कोई व्यक्ति नहीं बल्कि उस मानसिकता का प्रतीक हैं जो वर्तमान अमेरिकी जीवन शैली को तिलांजलि देना चाहते हैं. वे उस नर्क से बाहर आना चाहते हैं जिसे अब तक विकास और आधुनिकता के नाम पर ढोंग की तरह ढोते रहे हैं. अपने पूरे चुनाव अभियान के दौरान ओबाना ने आध्यात्मिक पूंजी को सहेजने की सबसे जोरदार वकालत की थी. यह आध्यात्मिक पूंजी निजी तौर पर आंतरिक उन्नति और समाज के तौर पर शोषणमुक्त समाज का रास्ता दिखाती है. क्या भारतीय मीडिया ने इस लिहाज से ओबामा की जीत को देखा है? अगर हां तो वे तत्व कहां हैं जो अमेरिका को ओबामा तक ले आये हैं और अगर नहीं तो हमारी वह भारतीय दृष्टि कहां चली गयी जो महात्मा गांधी के पास थी. बराक हुसैन ओबामा केवल अमेरिका के लिए होप नहीं है. वे अमेरिका के फोटोकापी भारतीयों के लिए भी होप दिखाई दे रहे हैं. अमेरिकी और अमेरिका के फोटोकापी भारतीय दोनों ही यह भूल रहे हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति होने के बावजूद अमेरिकी व्यवस्था के सामने सबसे कमजोर व्यक्ति है. वह सिर्फ रबर स्टैम्प है जिसे अमेरिकी नेशनस्टेट बहुत लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर इस्तेमाल करता है और फेंक देता है. बराक ओबामा की मशहूर पुस्तक "ओडेसिटी आफ होप" उनके उम्मीदों के दुस्साहस के बारे में ही होगी. शायद इसीलिए वे अपने भाषणों में "यस, वी कैन" का नारा लगवाते हैं. ठीक वैसे ही जैसे कोई नेता अपनी जनता में उम्मीद की किरण भर सकता है वे भरते हैं. लेकिन यह नारा अमेरिका के उस टूट चुके मनोबल को भी दर्शाता है जो उसे इस भ्रंस तक खींच लाया है. हो सकता है अमेरिका में उपभोग के सामानों की कोई कमी न हो और लोग "सुख" से जी रहे हों लेकिन सुख को अनुभव करनेवाली जो आत्मा होती है क्या वह अमेरिका के पास बची है? क्या अमेरिका और अमेरिका के फोटोकापी भारतीयों को इस बात का तनिक अंदाजा है कि बराक ओबामा कुछ नहीं कर सकते. चुनावी वादे और नारे आकर्षक व्यक्तित्व के जरिए आप उस प्रतिष्ठान तक जरूर पहुंच सकते हैं जिसे सत्ता कहते हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद आप सत्ता के हिस्से होते हैं. अमेरिकी नेशन स्टेट ओबामा क्या इराक से सेना हटाने की इजाजत देगी? क्या ओबामा में इतनी हिम्मत है कि वे इराकी तेल कुओं पर अमेरिकी कंपनियों के अवैध कब्जों को खत्म करवा सकें? क्या ओबामा दक्षिण मध्य एशियाई देशों की नीतियों में बदलाव ला सकते हैं. क्या वे इरान की नीतियों में बदलाव करेंगे? क्या वे अमेरिकी कंपनियों पर लगाम लगाने की कोशिश करेंगे जो पूरी दुनिया में घूम-घूम कर आम आदमी का खून चूसती हैं? क्या वे दूसरे देशों में नीतिगत हस्तक्षेप को बंद करवा देंगे? अगर ऐसा कुछ करते हैं तो फिर अमेरिका का वह रूतबा ही खत्म हो जाएगा जिस रूतबे के कारण भारत के टुंटपुजिया न्यूज चैनल भी लाईव रिपोर्टिंग करने अमेरिका जा पहुंचे हैं. क्या अमेरिका एक नेशन स्टेट के रूप में अपना रूतबा घटाकर बराक ओबामा को स्वीकार करने के लिए तैयार है?
शायद नहीं। कभी नहीं. बराक ओबामा जिस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति की शपथ लेंगे उस दिन वे अमेरिका के राष्ट्रपति होंगे और उन्हीं नीतियों को समर्थन करेंगे जिन नीतियों के कारण अमेरिका अमेरिका बना हुआ है. अगर सत्ता प्रतिष्ठान में पहुंचकर बदलाव संभव होता तो महात्मा गांधी भी देश के पहले प्रधानमंत्री बन जाते. महात्मा गांधी शायद इस बात को समझते थे कि गांधी सत्ता में जाने के बाद महात्मा नही रह पायेगा. सत्ता का अपना एक चरित्र होता है, जिसे बदला नहीं जा सकता. निश्चित रूप से बराक ओबामा अमेरिका और अमेरिका के फोटोकापी भारतीयों के लिए उम्मीद की एक किरण हैं लेकिन तभी तक जब तक वे व्हाईट हाउस में नहीं पहुंचते. जिस दिन वे ह्वाईट हाउस के अंदर होंगे उस िदन उनके निर्णय भले ही ज्यादा संतुलित हों लेकिन दुनिया के लिए अमेरिका के चेहरे को रत्तीमात्र भी नहीं बदल सकते. अगर उन्होंने ऐसा करने की कोशिश की तो अमेरिका ओबामा को भी बर्दाश्त नहीं करेगा. यही अमेरिकी नेशन स्टेट का चरित्र है और यही उसकी सफलता का राज भी. (मित्र विनोद पाठक द्वारा प्रेषित जिन्हें यह मेल उनके मित्र संजय तिवारी ने भेजा था )

                                             एक और वज्रपात, नीरज भैया को  लील गया कोरोना  दिल के अंदर कुछ टूट सा गया है, ऐसा कुछ, जिसका जुड़...