Thursday, February 16, 2017

पढ़ना जरूरी है, पर सोच-समझकर


सबके पास सिर्फ 24 घंटे हैं। इसी में से समय निकालना होता है। पत्रकार हो कायदे का पढ़ो-लिखो, नहीं तो धीरे-धीरे खत्म हो जाओगे।‘ ‘हिन्दुस्तान’ में अगस्त 2016 में हुई डोसा कनेक्शन मीट में प्रधानसंपादक श्री शशिशेखर जी के इन शब्दों ने गहरी चोट की। ठान लिया कि हर माह एक किताब जरूर पढूंगा। शौक भले ही कहानी और उपन्यास का रहा हो, लेकिन इनके बजाय कुछ और पढूंगा। ऐसा कुछ जो मेरी कमियों को दूर करने और मुझमें बदलाव लाने में मददगार साबित हो। लेकिन पढूं क्या? यह सवाल मुझे मथने लगा। मन में आया बुकस्टाल पर जाकर किताब छांटी जाए, लेकिन तुरंत ही यह विचार खारिज हो गया। जेब अभी इसकी इजाजत नहीं दे रही थी। पढ़ना तो तब भी है, कोई और रास्ता निकाला जाए। दोस्तों से किताब उधार मांगकर पढ़ी जाए, लेकिन सवाल फिर वही, किससे? दो-तीन दिन इसी जद्दोजहद के बीच गुजरे और फिर एक दिन पहुंच गया कादिबंनी के सहयोगी संपादक श्री अजय कटारा जी के पास।
अचानक मुझे अपने केबिन में दाखिल होता देख कटारा जी चौंक उठे। मैने नमस्कार किया तो बोले-अरे पवनेश तुम यहां कैसे? दरअसल, कटारा जी का केबिन दफ्तर के ग्राउंड फ्लोर पर था. पहली मंजिल पर जब भी मिलते तो मैं उनसे कहता कि आपसे मिलने आना है, लेकिन जनरल डेस्क की  व्यस्तता के चलते जा नहीं पाता था। जब भी वह ऊपर मिलते तो कहते -अरे आए नहीं। ऐसे में उनका चौंकना वाजिब था। अपने केबिन में किताबों से घिरे हुए कटारा सर से मैने अपनी मनस्थिति बयां कर डाली। उन्होंने कहा, देखों, और छांट लो जो पसंद हो। जो पढ़ना चाहे ले लो, लेकिन शर्त यह है कि किताब पढ़नी होगी। इसी वादे के साथ तुम किताब ले जा सकोगे।‘ मैने वहां से किताब चुनी-‘इरोम शर्मिला और आमरण अनशन।‘ इरोम के बारे में मुझे जानने का मौका मिलेगा यह सोचकर मैने यह किताब ली। इसी के साथ शुरु हुआ फिर से किताब के साथ खुद को जोड़ने का सिलसिला। पर हाय री किस्मत! बोहनी ही खराब हो गई। शुरु के दो-चार पेज पढ़े, फिर बीच  से पढ़ी, अंत के भी कुछ पेज पढ़े पर यह समझ ही नहीं आया कि यह किताब क्यों लिखी गई है? इसे पढ़कर हासिल क्या होगा? सामान्य जानकारी के अलावा यह सिर्फ लेखक के रोजनामचे और इरोम के संघर्ष को लेकर अखबारे के विश्लेषण जैसी थी। फिर भी मैने खुद को इसमें खपाया लेकिन तीन दिन बाद ही हिम्मत जवाब दे गई। इसी  के साथ किताबी सफर शुरू होते ही झटके के साथ रुक गया।

(फिर से  कैसे पकड़ी पढ़ने के शौक ने रफ्तार और क्या पढ़ा ये अगली बार..)

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