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Wednesday, June 18, 2008
नौ दिन चले अढ़ाई कोस
लीजिए, आरक्षण को राजस्थान सरकार और गुर्जरों में सुलह हो गई। अलग से पांच फीसदी कोटे पर गुर्जर मान गए। समझौते के फारमूले को देखें तो गुर्जर आंदोलन की स्थिति नौ दिन चले अढ़ाई कोस की ही रही। क्योंकि २३ मई को आंदोलन शुरू होने के तीन दिन बाद ही राज्य सरकार ने केंद्र को गैर अधिसूचित क्षेत्र में छह फीसदी आरक्षण की सिफारिशी चिट्ठी केंद्र को भेज दी थी। लेकिन गुर्जर अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग पर अड़े रहे। नतीजा चार हफ्ते तक आंदोलन खिंचा। रेल संचालन ठप होने और तोड़फोड़ के अलावा माल ढुलाई बंद होने से रेलवे के साथ-साथ केंद्र और सरकार को अरबों की चपत लगी। आम लोगों ने परेशानियां भुगती अलग से। आंदोलन खत्म हो गया, लेकिन पीछे कई बड़े सवाल छोड़ गया है। क्या अपनी मांगों को मनवाने के लिए बंद और इस दौरान राष्ट्रीय संपति को नुकसान पहुंचाना सही है ? सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था ठप कर लाखों लोगों को परेशानी में डालना उचित कहा जाएगा ? क्या शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत से कोई हल नहीं निकल सकता? यदि अपनी अंतरआत्मा की बात सुने तो शायद सभी लोग (आंदोलनकारी भी) बंद और तोड़फोड़ का समर्थन नहीं करेंगे। बंद आम लोगों के लिए तकलीफदेय ही नहीं होता, यह राष्ट्र के विकास को भी बाधित करता है। रोज-रोज के बंद-तोड़फोड़ से कैसे निपटा जाए इसके बारे में नीति-नियंताओं को सोचना चाहिए। गांधीगिरी का कमाल सभी देख चुके हैं। अहिंसा के बल पर गांधी जी अंग्रेजों ( इनके बारे में कहा जाता था कि अंग्रेजी राज में सूरज कभी नहीं डूबता) को देश से भगाने में कामयाब रहे, फिर अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए इसे आजमाने में हर्ज क्या है। इस पर अमल में कैसी हिचक। कम से कम एक बार तो इसे आजमा सकते ही हैं? -
जिंदगी को जितना समझता हूं ये उतना ही हैरान करती है..कभी लगता है हाय. ये क्या जिंदगी है, कभी लगता है वाह! ये ही जिंदगी है। ये नजरिया ही है जो कभी किताबों से हासिल होता है और कभी बातों से । बस इन्हें ही समेटने की कोशिश रहती है हमेशा।
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