Sunday, September 21, 2008

सांप्रदायिक चश्मा उतारें

हर मुठभेड़ की तरह दिल्ली के जामिया नगर में हुई आतंकी मुठभेड़ को भी समुदाय विशेष के तथाकथित बुद्धिजीवी और इस वर्ग के रहनुमा मजहबी रंग देने से नहीं चूके। मुठभेड़ में दो आतंकवादियों की मौत को पुलिस का प्रायोजित कार्यक्रम करार दे दिया गया। मुठभेड़ के कुछ समय बाद ही टीवी पर दिखाई पड़ने वाले ज्यादातर स्थानीय चेहरे पुलिस पर आरोप लगाते हुए सुनाई दिए। बेर्शमी के साथ ये लोग जहां मारे गए आतंकियों को निर्दोष बता रहे थे वहीं, सभी मुठभेड़ों को संप्रदाय विशेष को परेशान करने वाला करार दे रहे थे। मुठभेड़ में इंस्पेक्टर एमसी शर्माऔर एक हेड कांस्टेबल को गोली लगना भी इनके लिए पुलिस का प्रोपेगेंडा था। पुलिस द्वारा शर्मा को गंभीर रूप से घायल बताए जाने के बावजूद सभी मुठभेड़ पर ही उंगली उठा रहे थे। दिल्ली के साथ-साथ यूपी में तो और भी बुरा हाल था। आजमगढ़ के सरायमीर में लोगों ने पकड़े गए आतंकी सैफ को सही बताते हुए हंगामा काटा और मीडिया के साथ मारपीट की। हर चीज को सांप्रदायिक चश्मे से देखने से आदी हो चुके देश के इन सम्मानित लोगों को अब क्या कहा जाए ? पुलिस को कठघरे में खड़ा करने और आतंकियों की पैरवी करने से पहले ये लोग थोड़ा इंतजार कर लेते तो इनका क्या बिगड़ जाता। पुलिस को मिले सुबूत दूध का दूध और पानी का पानी तो कर ही देते। और ऐसा हुआ भी। मुठभेड़ स्थल से मिले सबूतों ने दोनों को आतंकी साबित कर ही दिया। पर पुलिस पर उंगली उठाने वाले लोगों के क्षुद्र रवैये से तो साफ है कि देश और देशवासियों की सुरक्षा से इनका कोई सरोकार नहीं है। कट्टरपंथियों के हाथ की कठपुतली बन चुके ये लोग भी आतंकियों की श्रेणी में ही खड़े हैं। देश में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। आतंकी जहां अपनी वारदातों से देश को नुकसान पहुंचा रहे हैं, वहीं ये उन्हें प्रश्रय और उनकी पैरोकारी कर उनका सहयोग कर रहे हैं। आखिर ये लोग यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं, कि यह देश उनका अपना है। इसके बाहर इनका कोई सहारा नहीं है। आतंकी गतिविधियों में लगो जो लोग हमर्दद नजर आते हैं वे वास्तव में अपने नहीं है। देश में आतंकवाद का शिकार बनने वाले लोग अपने होते हैं। ऐसे चंद लोगों के कारण ही पूरा संप्रदाय अविश्वसनीय हो गया है। हांलाकि दिल्ली पुलिस के खुलासे और इंस्पेक्टर की शहादत के बाद अब इन सभी लोगों की जुबान पर ताले लगे हुए हैं। लेकिन इससे क्या। अविश्वास की खाई तो और चौड़ी हो ही चुकी है। मैं तो यह सोच कर सिहर उठता हूं, कि यदि इस आपरेशन बटला हाउस में पुलिस को कोई क्षति नहीं उठानी पड़ती तो तब क्या होता? एक बार फिर वोट बैंक की राजनीति शुरू हो जाती। अभी तक खामोश बने हुए तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग और राजनेता आतंकी अबू बशर के घर की भांति फिर सैफ के घर पर जुटने शुरू हो जाते। सरकार और प्रशासन को कोसकर आतंकवाद को जड़ों को सींचते। देश में दिनोदिन बढ़ रहे आतंकवाद के खतरे के मद्देनजर अब चेत जाने की जरूरत हैं। यह हम सबका देश है। आतंकी घटना के वक्त घटनास्थल पर नहीं होने से हम भले ही बच जाए, लेकिन इसका असर हम पर जरूर पड़ता है। वह हमला घायल करता है। इसलिए संकीर्ण नजरिया और सिर्फ अपना हित साधने की मानसिकता छोड़नी होगी। आतंकी किसी कौम या मजहब के नहीं हैं, यह छोटी से बात जो अभी तक चंद लोग समझ कर भी नहीं समझ रहे, उन्हें समझनी ही होगी। वरना केवल कुछ साल बाद ही इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की कतार में भारत भी होगा। अभी हाल ही में हुए एक सर्वे के अनुसार पिछले कुछ सालों में विश्व में इराक के बाद सबसे ज्यादा धमाके भारत में हुए हैं। यही नहीं इनमें इराक के बाद सबसे ज्यादा मौतें भी भारत में ही हुई हैं। इसलिए नजरिया बदलें और आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब दें।

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

असल में राजनेताओं का कमजोर रवैया ही ऐसा माहोल तैयार कर रहा है।जिस कारण यह विवाद उठते हैं।

Sanjeev said...

हकीकत कड़वी हो सकती है पर नकारी नहीं जा सकती। सारा दोष राजनेताओं पर न दिया जाय तो बेहतर होगा। आतंक के विरूद्ध मजबूती से खडे राजनेता भी हमारे देश में हैं। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम सही और गलत में फर्क पहचान कर सही का साथ दें।

                                             एक और वज्रपात, नीरज भैया को  लील गया कोरोना  दिल के अंदर कुछ टूट सा गया है, ऐसा कुछ, जिसका जुड़...